चुने हुए मुक्तक
"अटल हों गर इरादे तो खुदाई साथ चलती है
उम्मीदों की शमा बेख़ौफ़ तूफानों में जलती है
ये मायूसी की चादर से निकल बाहर ज़रा देखो
अँधेरी रात के दिल में सुनहरी धूप पलती है"।
--- समीर परिमल
पलकों पे आंसुओं को सजाने में रह गए।
हम जिंदगी का बोझ उठाने में रह गए,
हम महफ़िलों में आपकी आये तो थे मगर,
दामन फटा हुआ था छुपाने में रह गए ।
-- कृष्ण कुमार बेदिल
( मेरठ , उ प़ )
डोर ज़िन्दगी की उलझाये हुए है वो रब
कठपुतलियो की तरह नचाये फिरता है
इक तागा खींचे तो खुशनुमा है ज़िन्दगी
इक तागे में जैसे कोई दर्द निकलता है.।
-- मानव शिवि मेहता
( टोहाना , हरियाणा )
लोकतंत्र की जननी जनता न्यारी है
जान रही किसमेँ कितनी मक्कारी है
कुहरा,बादल और अँधेरा एक हुए,
सच का सूरज ढकने की तैयारी है ।।
- -- उमा प़साद लोधी
( बहराइच , उप़ )
रूप,धन, रुतबा ,प्रतिष्ठा हैं मिले सब जिनको
ग़म की इक चोट से जीवन को मिटा देते हैं
एक हम हैं कि ग़मों से ही घिरे हैं हर पल
फिर भी जीते हैं औ जीने का मज़ा लेते हैं ।
-- लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
( नई दिल्ली )
.नजर पड़ी तो पड़ी रह गयी
.तनिक लड़ी तो लड़ी रह गयी
हिला नहीँ मैँ अपने दर से
वह बौरी सी खड़ी रह गयी ।।.......
...उमा प्रसाद लोधी
ये करिश्मा मोहब्बत में होते देखा
लब पे हँसी, आँख को रोते देखा
गुजरे हैं मंज़र भी अज़ब, आँखों से
साहिल को कश्तियाँ डुबोते देखा
© लोकेश नदीश
( जबलपुर ,म प्र )
वो मसीहा है अजब कैसी सज़ा देता है
दर्द देता है कभी हम को दवा देता है
उस की सहमत का नहीं कोई ठिकाना लोगो
रोने वालों को भी पल भर में हँसा देता है ।
-- प्रकाश सूना
ज़ख्मे- दिल की चुभन खो गई
बात आई - गई हो गई
आपका आसरा क्या मिला
ज़िन्दगी, बन्दगी हो गई
-दीक्षित दनकौरी
( दिल्ली )
इस बस्ती में बड़े अभागे रहते
जो रोटी के ख़ातिर मीलों चलते
कुछ ऐसे अमीर भी यहाँ निवासी
जो अपच पचाने को मीलों चलते ।
सुधेश
( दिल्ली )
"अटल हों गर इरादे तो खुदाई साथ चलती है
उम्मीदों की शमा बेख़ौफ़ तूफानों में जलती है
ये मायूसी की चादर से निकल बाहर ज़रा देखो
अँधेरी रात के दिल में सुनहरी धूप पलती है"।
--- समीर परिमल
पलकों पे आंसुओं को सजाने में रह गए।
हम जिंदगी का बोझ उठाने में रह गए,
हम महफ़िलों में आपकी आये तो थे मगर,
दामन फटा हुआ था छुपाने में रह गए ।
-- कृष्ण कुमार बेदिल
( मेरठ , उ प़ )
डोर ज़िन्दगी की उलझाये हुए है वो रब
कठपुतलियो की तरह नचाये फिरता है
इक तागा खींचे तो खुशनुमा है ज़िन्दगी
इक तागे में जैसे कोई दर्द निकलता है.।
-- मानव शिवि मेहता
( टोहाना , हरियाणा )
लोकतंत्र की जननी जनता न्यारी है
जान रही किसमेँ कितनी मक्कारी है
कुहरा,बादल और अँधेरा एक हुए,
सच का सूरज ढकने की तैयारी है ।।
- -- उमा प़साद लोधी
( बहराइच , उप़ )
रूप,धन, रुतबा ,प्रतिष्ठा हैं मिले सब जिनको
ग़म की इक चोट से जीवन को मिटा देते हैं
एक हम हैं कि ग़मों से ही घिरे हैं हर पल
फिर भी जीते हैं औ जीने का मज़ा लेते हैं ।
-- लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
( नई दिल्ली )
.नजर पड़ी तो पड़ी रह गयी
.तनिक लड़ी तो लड़ी रह गयी
हिला नहीँ मैँ अपने दर से
वह बौरी सी खड़ी रह गयी ।।.......
...उमा प्रसाद लोधी
ये करिश्मा मोहब्बत में होते देखा
लब पे हँसी, आँख को रोते देखा
गुजरे हैं मंज़र भी अज़ब, आँखों से
साहिल को कश्तियाँ डुबोते देखा
© लोकेश नदीश
( जबलपुर ,म प्र )
वो मसीहा है अजब कैसी सज़ा देता है
दर्द देता है कभी हम को दवा देता है
उस की सहमत का नहीं कोई ठिकाना लोगो
रोने वालों को भी पल भर में हँसा देता है ।
-- प्रकाश सूना
ज़ख्मे- दिल की चुभन खो गई
बात आई - गई हो गई
आपका आसरा क्या मिला
ज़िन्दगी, बन्दगी हो गई
-दीक्षित दनकौरी
( दिल्ली )
इस बस्ती में बड़े अभागे रहते
जो रोटी के ख़ातिर मीलों चलते
कुछ ऐसे अमीर भी यहाँ निवासी
जो अपच पचाने को मीलों चलते ।
सुधेश
( दिल्ली )
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्या होता है काली बिल्ली के रास्ता काटने का मतलब - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपका प्रयास प्रशंसनीय है.
मुझे लगता है कि हमें हिंदी-उर्दू की बहसों में नहीं पड़ना चाहिए। कोई कुछ भी कहे, वस्तु-स्थिति इस झूठे सेकुलरिजम के ठेठ विपरीत है.
ये दो अलग-अलग मिज़ाज और कैफियत से जुदा दो अलग-अलग ज़ुबानें हैं जिनमें न तो हिंदी की काव्य-विधा में ग़ालिब की ग़ज़ल ज़िंदा रह सकती है और न ही उर्दू की सिन्फ़ में हिंदी की ठेठ निराला की कविता जीवित रह सकती है. यह ऐसा ही है जैसे खान-ए-काबा में कोई मंदिर का पुजारी जमात में खड़ा होकर होने उच्चारण में कुरआन की आयतें पढ़ने की कोशिश करे और कशी में आरती के वक्त गंगा के किनारे कोई अरबो-अजम का आलिम इमाम किरत में वैदिक-ऋचाओं का पाठ करता हो.
उर्दू का मिज़ाज अरब के रेगिस्तानों से चलकर राबिया बसरा की ज़ुल्फ़ों को चूमता हुआ ईरान का सूफियाना इश्क़ जब हिंदुस्तान में दाखिल हुआ तो 'हिंदी,हिंदुस्तानी या खड़ी बोली ' पूरी हिशियरी के साथ कुछ फासला देकर सामने आ खड़ी हुई तो अरबी के शब्दों से मालामाल फ़ारसी को सूफीवाद के लहजे में कहना पड़ा,'हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन से हिशियरी क्या?'
जब झिझक टूटी तो खुसरो भी हिंदी में रो पड़े,'गोरी सोवै सेज पर, मुख पे डारे केस/चल खुसरो घर आपनो, पिया गए चहुँ-देस. उर्दू तो बहुत बाद में पैदा हुई. यही वह प्रभाव है जिसके अंतर्गत राजनीतिक कारणों से उर्दू बैकग्राउंड से आनेवाला साहित्यकार हिंदी अकादमी का सचिव या उपाध्यक्ष नहीं बन पाया। साहित्य अकादमी का सचिव उर्दू बैकग्राउंड से आ तो जाता है, लेकिन वह मुस्लिम परिवेश का नहीं होता है. इस प्रकार की राजनीती ने दो महत्वपूर्ण भाषाओँ के वर्त्तमान और उसके भविष्य को अंधकार की ओर धकेल दिया है.
बर्फ के दरिया में हम-भी बह गए,
धूप की चादर लपेटी सो गए.
वह ज़माना था जुनूने-इश्क का ,
उन दिनों के सारे खंडहर ढह गए.
-रंजन ज़ैदी
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ReplyDeleteआज 20/02/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
achha sangrh
ReplyDeleteshubhamnayen
achha sankalan
ReplyDeleteshubhkamnayen
ati umda sangrah....
ReplyDeletevisit here n follow the blog
''anandkriti''
anandkriti007.blogspot.com