Friday, 14 December 2012

नई कविताएँ


                   दौड़ 

  सब दौड़ते हैं ज़िन्दगी की दौड़ 
  ंअपनी शक्ति भर 
  कुछ दौड़ते कुछ दूर 
  थक बैठ जाते हैं 
  कुछ हठी या धुनी मेरे सरीखे 
  दौड़ते हैं दूर तक 
  लक्ष्य आँखों में लिये 
  अचानक कोई मदारी
  नियन्ता  वक़्त का 
  टंगड़ी मार कर गिराता उसे 
  बन्दर मदारी का दौड़ में शामिल 
  आया प़थम 
  तो क्या हुआ 
  झाड़ कर धूल लगा फिर दौड़ने  मैं 
  अब तक दौड़ता हूँ 
  जैसे हज़ारों लाख हिन्दुस्तानी 
  करोड़ों वियतनामी कम्बोडिया वासी 
  कांगो पेरू, चिली के लोग 
  तीसरी दुनिया समूची 
  प़गति की मैराथन दौड़ती है 
  शोषितों की फ़ौज कर रही है मार्च 
  घमण्डी पूँजी दुर्ग के ं शिखर को जीतने 
  अण्डमान निकोबार जैसी जेलें तोड़ऩे 
  नरभक्षी दानवों की गर्दनें मरोड़ने 
  कौन रोकेगा उसे 
  यह दौड़ तमग़ों के लिए नहीं 
  जीने और मरने मारने की दौड़ है ।
              क्यों ंखड़े हो यों उदास 
               क्या ंआत्म हत्या करोगे 
               ज़िन्दगी से हार कर 
               चलो मेरे साथ दौड़ो 
               रगों में ख़ून का संचार होगा 
                मन में नंई आशा जगेगी 
                देंंखो ज़िन्दगी है संफर 
                चाहे ंघिसट कर जियो 
               या  शेर से दौड़ो 
               बीहड़ ज़िन्दगी  के जंगलों में 
                दौड़ना हमारी नियति 
                 विवशता भी  ।

                सोचते सोचते 

  सोचते सोचते
   मैं ने दिमाग़ की खिड़की खोल 
  बुद्धि से पूछा 
  कितना सोचा जाए 
  ंउत्तर आया 
  अंधिक सोचने से काम रुकता है 
  मगर मन के कोने से 
  नए विचार ने फ़रमाया 
  सोच समझ के ही 
  कोई काम करो ।
              एक नए विचार ने दस्तक दी
              पाँव ने ंउठने का कर्म किया 
              हाथ ने द्वार खोलने का 
              वाणी ने बोलने का 
              सब का मतलब था कि 
               कुछ कर्म करो 
               वरना लेटे लेटे या बैठे बैठे 
               शब्दों की करते हुए जुगाली 
               नारे उछालते 
                उम़ गुज़र जाएगी ।
  बाद में सोचना कि 
  क्या सोचा था 
  क्या हो गया  ।

--सुधेश 
                 

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