१ फुर्सत नहीं है
पास आती जा रही है आख़िरी मंज़िल
पर मुझे फ़ुर्सत नहीं है ।
कोरियर तो आ चुका है यम दूत का कल
यमराज जी ने मुझे जल्दी बुलाया है ,
कमज़ोर क़ाहिल तंग दिल की धमनियों को
प्यारी थपकियाँ दे दे कर सुलाया है ।
लेकिन मेरे काम दुनिया भर में फैले हैं
मुझे तो फ़ुर्सत नहीं है ।
सुकविता कामिनी को मेरी प़तीक्षा है
मेरी कथा के नायकों की परीक्षा है
अविवाहित पुत्रियों सी पाण्डुलिपियाँ पड़ीं
वांछित दूल्हे माँगते हैं सोने की घड़ी ।
मेरे बाद मेरी पोथियों का क्या बनेगा
सोचने की मोहलत नहीं है ।
जाना तो पड़ेगा ही किसी मनहूस दिन
फिर वक़्त क्यों ज़ाया करूँ तारीख़ गिन गिन
मौत से पहले तो लड़ूँगा ही महाभारत
नहीं होने दूँगा मैं अपने देश को ग़ारत ।
ज़रूरी काम करने बाक़ी पड़े कितने ,
अभी तो फ़ुर्सत नहीं है ।
पास आती जा रही है आख़िरी मंज़िल
पर मुझे फ़ुर्सत नहीं है ।
कोरियर तो आ चुका है यम दूत का कल
यमराज जी ने मुझे जल्दी बुलाया है ,
कमज़ोर क़ाहिल तंग दिल की धमनियों को
प्यारी थपकियाँ दे दे कर सुलाया है ।
लेकिन मेरे काम दुनिया भर में फैले हैं
मुझे तो फ़ुर्सत नहीं है ।
सुकविता कामिनी को मेरी प़तीक्षा है
मेरी कथा के नायकों की परीक्षा है
अविवाहित पुत्रियों सी पाण्डुलिपियाँ पड़ीं
वांछित दूल्हे माँगते हैं सोने की घड़ी ।
मेरे बाद मेरी पोथियों का क्या बनेगा
सोचने की मोहलत नहीं है ।
जाना तो पड़ेगा ही किसी मनहूस दिन
फिर वक़्त क्यों ज़ाया करूँ तारीख़ गिन गिन
मौत से पहले तो लड़ूँगा ही महाभारत
नहीं होने दूँगा मैं अपने देश को ग़ारत ।
ज़रूरी काम करने बाक़ी पड़े कितने ,
अभी तो फ़ुर्सत नहीं है ।
२ नींद बावरी
नींद बावरी क्यों आ जाती ।
जब आती सपने ले आती
जब जाती यादें रह जाती
दुनिया ने जो घाव दिये हैं
कोमल हाथों से सहलाती ।
निदिया संपने दोनों संगी
जिन को नहीं समय की तंगी
विधवा जो भी हुई कामना
सपने में वह रास रचाती ।
दिन में तो संग़ाम छिड़ा है
कुछ बाहर कुछ मन में लड़ा है
नींद आवरण पीछे कोई
भोली सी सूरत मुस्काती ।
जीवन में जो नहीं मिला है
सपने में बन फूल खिला है
नीली आँखों वाली लड़की
रक्तिम गालों पर इतराती ।
नींद बावरी क्यों आ जाती
--सुधेश
आँख में आँसू दिये किस ने
आँख में आँसू दिये किस ने
ये बिना कारण निकलते हैं ।
दुक्ख तो है हृदय की थाती
जोकि मैं ने जन्म से पाई
जब कहीं बदली उठी ग़म की
नयन में वर्षा ंउतर आई।
पाँव म्ेरे जंगलों भटके
राज पथ पर क्यों फिसलते हैं ।
दुक्ख अपना ही लगा पर्वत
दूसरे का दुख लगा राई
सब बराबर होगये लेकिन
जब प़लय की घड़ी लहराई ।
डूबते तैराक ही अक्सर
तमाशाई तो सँभलते हैं ।
स्वर्ग ंउतरा राजपथ पर है
नरक जनपथ हो गया अब तो
देश भक्षक खा रहे सब कुछ
देंश रक्षक सो गया ंअब तो ।
जन कभी हँसते कभी रोते
पर वही दुनिया बदलते हैं ।
--सुधेश
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