जीवन का यथार्थ
जीवनके काले यथार्थ ने उज्ज्वल सपनों में भटकाया ।
जीवन अमृतघट से वंचित
उस की झलक मिली सपनों में
उसे छीन भागे दुश्मन जो
शामिल थे मेरे अपनों में ।
सपनों में ही ख़ुश हो लो बस ऊपर वाले ने समझाया ।
सपनों पर मेरा क्या क़ाबू
वे तो हैं बस मन की छलना
जीवन में ज्यों भटक रहा हूँ
वैसे ही सपनों में चलना ।
मंज़िल तो बस मृगतृष्णा है जीवन सन्ध्या ने बतलाया ।
नहीं नियति में मेरी श्रद्धा
भाग्यविधाता होगा कोई
सपने तो शीशे के घर हैं
उन्हें तोड़ मुस्काता कोई ।
मैं यंथार्थ का पूजक चाहे जग ने मुझ को हिरण बनाया ।
ठोस जगत है जीवन माया
लेकिन मन का शीशा कोमल
पाषाणों की वर्षा होती
जीवन शीशमहल का जंगल ।
मरुथल में मृग भटक रहा है लेकिन जल का स़़ोत न पाया ।
-- सुधेश
उन के गाल ख़रबूज़े
होंठ अँगूरी नयन मृग से
करते शिकार
पर ख़ुद शिकार भी
कैसा वक़्त आया
ये संभ्य चेहरे
गोरांग लिपे पुते
सुबह सात बजे बने ठने
मगर सब के सब
दिन भर अनमने
क्या बने बात जहाँ
बात बनाये न बने ।
--सुधेश
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