नये मुक्तक
प़ात: उठ कर ख़ुदा बन्दगी
दिन भर करते रोज़ गन्दगी
यों ही उम़़ बीत जाएगी
कर्म जाल में फँसी ज़िन्दगी ।
बिना कर्म के शक्ति नहीं है
श्रद्धा के बिन भक्ति नहीं है
कहाँ कहाँ से मंुह फेरोगे
कर्मजाल से मुक्ति नहीं है ।
कर्म बिना कुछ शक्ति नहीं है
ज्ञान बिना कुछ भक्ति नहीं है
दुर्बल को सब और दबाते
शक्ति बिना भी मुक्ति नहीं है ।
राग बिना अनुरक्ति नहीं है
प़ेम बिना आसक्ति नहीं है
आसक्ति एक बन्धन लेकिन
ज्ञान बिना कुछ भक्ति नहीं है ।
हर कोई है प़ेम विकल
ढंूंढ रहा स्नेही सम्बल
बन्धन में सब बँधे हुए
मुक्ति एक सपना केवल ।
हम ग़म खाते हैं आँसू पीते हैं
केवल अपने ही लिए न जीते हैं
मानवता की भी पहचान हमें है
हम रिश्तों में ही मरते जीते हैं ।
--सुधेश
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