Tuesday, 5 February 2013

नये मुक्तक

             नये  मुक्तक 
प़ात: उठ कर ख़ुदा बन्दगी 
दिन भर करते रोज़ गन्दगी 
यों ही उम़़ बीत जाएगी 
कर्म जाल में फँसी ज़िन्दगी ।
          बिना कर्म के शक्ति नहीं है
         श्रद्धा के बिन भक्ति नहीं है 
         कहाँ कहाँ से मंुह फेरोगे 
         कर्मजाल से मुक्ति नहीं है ।
कर्म बिना कुछ शक्ति नहीं है 
ज्ञान बिना कुछ भक्ति नहीं है 
दुर्बल को सब और दबाते 
शक्ति बिना भी मुक्ति नहीं है ।
        राग बिना अनुरक्ति नहीं है 
        प़ेम बिना आसक्ति नहीं है 
        आसक्ति एक बन्धन लेकिन 
        ज्ञान बिना कुछ भक्ति नहीं है ।
हर कोई है प़ेम विकल 
ढंूंढ रहा स्नेही सम्बल
बन्धन में सब बँधे हुए 
मुक्ति एक  सपना केवल ।
        हम ग़म खाते हैं आँसू पीते हैं 
         केवल अपने ही लिए न जीते हैं 
        मानवता की भी पहचान हमें है 
        हम रिश्तों में ही मरते जीते हैं ।
--सुधेश 

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