Friday 8 February 2013

साहित्य ही क्यों

                    साहित्य ही क्यों 

आज के युग में साहित्य को हाशिये पर धकेला  जा रहा है ।नये संचारमाध्मों ,जैसे दूरदर्शन ,
केबल चैनलों ,विविध पत्र पत्रिकाओं ने ऐसा वातावरण बनाया है कि आज का युवा वर्ग ,
शिक्षित अथवा साक्षर जनता इन्हीं माध्यमों द्वारा प़चारित सामग़ी में ही उलझ कर रह
जाती है । इन माध्यमों में समाचाचार , विज्ञापन और मनोरंजन की वस्तुओं को अधिक 
स्थान दिया जाता है  , साहित्य का स्थान बहुत कम या नगण्य है । दूरदर्शन के अनेक 
चैनल हैं , पर उन पर राजनेता  , खिलाड़ी और फ़िल्मी अभिनेता छाये हुए हैं । उन्हीं की 
गतिविधियाँ उन पर चौबीस घण्टों प्रसारित  होती रहती हैं । चोरी  ,डकैती ,लूट ,हत्या ,
आत्महत्या ,आतंकवादियों की काली करतूतें उन पर नमक मिर्च लगा कर दिखाई और 
सुनाई जाती हैं , जिन से लगता है कि देश और दुनिया में सब कुछ घृणास्पद हो रहा है ,
अच्छा कुछ नहीं ।
 समाचारपत्रों में समाचार से ज़्यादा विज्ञापन छपते हैं ,पर उन के साहित्यिक परिशिष्ट
में ,जो सप्ताह में एक दिन छपते हैं ,थोड़ा साहित्य भी छपता है । समाचार पत्रों पर भी 
राजनेता ,अभिनेता  खिलाड़ी और आतंकवादी छाये हुए हैं । उन में  साहित्य की चर्चा 
प़ाय: नहीं होती ।
 पत्रिकाओं ,विशेषत: लघुपत्रिकाओं में ,साहित्य को अधिक स्थान प़ाप्त है । लेकिन प़श्न 
यह है कि कितने लोग साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ते हैं ।आउटलुक या इंडियाटुडे जैसी 
पत्रिकाएँ सनसनीपूर्ण राजनीतिक घटनाओं या दिल दहला देने सूचनाओं को रंगीन 
काग़ज़ पर छापती हैं । उन में साहित्य नदारद है । ये लाखों की संंख्या में छपती हैं ,
जिस से लगता है कि इन के पाठक लाखों की संख्या में नहीं तो हज़ारों तो होंगे ।
पर ये व्यावसायिक पत्रिकाएँ हैं जिन का उद्देश्य  साहित्य सेवा नहीं पैसा कमाना है ।
 पहले पत्रकारिता और साहित्य का चोली दामन का सम्बन्ध था । आजकल ऐसा 
सम्बन्ध नहीं रहा । अनेक पत्रकार साहित्यकार हैं ,पर समाचारपत्रों अनेक पत्रिकाओं 
का उद्देश्य साहित्य सेवा नहीं मेवा कमाना या हथियाना हो गया है ।
  ऐसे में यह प़श्न स्वाभाविक है कि साहित्य की उपयोगिता क्या समाप्त हो गई है ।
तभी उसे हाशिये पर धकेल दिया गया है ।पत्रकारिता जगत ही नहीं ,समाज में भी 
साहित्य का कितना स्थान बचा है । कवि ,लेखक ,नाटककार लिख लिख कर काग़ज़ 
काले कर रहे हैं , पर उन्हें कौन पढ़ता है , कितने लोग पढ़ते हैं और कितने उस की चर्चा 
और मूल्याँकन करते हैं । ये प़श्न साहित्यकारों  , साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए 
महत्वपूर्ण होंगे , पूँजी पतियों और उन से जुड़े पत्रकारों के लिए नहीं ।
  पत्रकारिता पहले बौद्धिक विमर्श और समाजसेवा के लिए होती थी , अब पैसा कमाने 
के लिए होती है ।विज्ञापनों के बल पर न जाने कितने साप्ताहिक ,पाक्षिक समाचारपत्र
चल रहे हैं । दैनिक समाचारपत्रों की आय का मुख्य स़़ोत भी विज्ञापन है । तो साहित्य 
के प़मुख मंच अर्थात पत्रकारिता को व्यावसायिक शक्तियों ने हथिया लिया है । 
   संचार के अन्य माध्यम साहित्य के मंच नहीं बन पाए ।दूरदर्शन पर कितना साहित्य
दर्शन देता है ।सप्ताह में एक दिन पत्रिका कार्यक़म दिखाया जाता है ,जो एक साहित्यिक
कार्यक़म है ओर इस के लिए केवल आधा घण्टा निश्चित है । अन्य दिनों दूरदर्शन और 
केबिल चैनलों पर राजनेता ,अभिनेता , खिलाड़ी और विज्ञापित वस्तुएँ अपनी छवि 
चमकाती रहती हैं , जिन्हें देख कर लगता है कि जीवन सिमट कर राजनीति , फ़िल्म ,
और खेलों तक सीमित रह गया है ।उस का क्षेत्र फैला तो हिंसात्मक कारनामे और 
त्रासदियाँ उस में घुस जाती हैं ,और हर कारनामा तथा त्रासदी एक सनसनीपूर्ण स्टोरी 
के रूप में प़स्तुत की जाती है ।
  अब साहित्य का मुख्य मंच साहित्यिक पत्रिकाएँ , इन्टरनेट पर संचालित हज़ारों 
ब्लाग या चिट्ठे और कविगोष्टयां , कविसम्मेलन ही रह गये हैं । कविसम्मेलनों की 
साहित्यिक गरिमा को चुटकुले बाज़ों और भांडों ने नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी 
है । साहित्य अकादमियाँ साहित्य के संवर्धन  और प्रोत्साहन के बजाए राजनीतिक 
अखाड़ेबाज़ी की मंच बन कर रह गई हैं , जिन पर साहित्यकारों का नहीं साहित्य की 
राजनीति करने वाले सत्ता के दलालों का क़ब्ज़ा हो गया है ।
   इस वातावरण में साहित्यसेवी और साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्ति के मन में 
यह प़श्न उठता है कि साहित्य की देश और दुनिया में क्या जगह रह गई है ।इसी से 
जुड़ा यह प़श्न है कि आख़िर साहित्य की क्या उपयोगिता रह गई है ।
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   जब संचार के नये नये माध्यमों में साक्षरता और शिक्षित जनता और निरक्षर जनता 
को भी अपनी पकड़ में ले कर समय काटने या जीवन बिताने के विविध उपकरण थमा 
दिये हैं , तो वह साहित्य की ओर क्यों जाए ।उस के लिए टेलीफ़ोन , टेलीवीज़न ,कम्प्यूटर ,
फ़ैक्स मशीन आदि उपकरण पुस्तक और पत्रिका की तुलना में अधिक उपयोगी ओर 
महत्वपूर्ण हो गये हैं । ऐसा नहीं है कि ये उपकरण साहित्य के विरोधी हैं , बल्कि इन के माध्यम से साहित्य का कुछ प़चार हो रहा है ,चाहे वह अल्प मात्रा में हो । साहित्य के विकास में 
अवरोध या उस की उपयोगिता पर प़श्न चिह्न लोगों की घटिया मानसिकता से लगता 
है , जो अधिक भौतिकवादी  , स्वार्थी , अवसरवादी होती जा रही है ।
   लेकिन जनता की मानसिकता का बनना और बदलना शून्य में नहीं होता । परिवेश 
और परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण ही मानसिकता बनती ,बिगड़ती ओर बदलती 
है । संचार के नए साधनों ,उपकरणों ,विधियों का सदुपयोग दुरुपयोग हमारे ऊपर निर्भर 
करता है ।इस तकनीकी विकास और नए संचारमाध्यमों की आलोचना के बजाए इन के 
सदुपयोग पर बल देना चाहिए । इन के सदुपयोग से साहित्य के विकास में मदद मिलेगी । 
   विचारणीय  यह भी है कि साहित्य की उपयोगिता और प़ासंगिकता कैसे स्थापित हो 
और उस की गरिमा कैसे लौटे । इस का एक उपाय पुस्तकों में रुचि विकसित करने के 
उपायों से होगा । इस में परिवार की बड़ी भूमिका है । माँ बाप यदि स्वयम् पुस्तकें 
पढ़ते होंगे तो बच्चों पर भी अनुकूल प़भाव पड़ेगा । हर घर में एक पुस्तकालय होना 
चाहिये । हर मुहल्ले ,उपनगर, क़स्बे और शहर में पुस्तकालय होना चाहिये ।
   अन्त मेंं इतना  कि साहित्य की उपयोगिता असंदिग्ध है और संचार के नये साधन 
नए उपकरण (इन्टरनेट सहित ) पुस्तक के विकल्प नहीं हो सकते । पर पुस्तक को भी 
आधुनिक और अद्यतन बनाना पड़ेगा । यह लेखन , मुद़ण , प़सारविधि तीनोंस्तरों पर 
अपेक्षित है ।पुस्तकों के प़चार प़सार में साहित्य का भविष्य निहित है ।

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