Tuesday 23 July 2013

कुछ मुक्तक


              कुछ मुक्तक

हम कड़ी धूप में निकलते रहें 
काफिले रात में भी चलते रहें 
कोशिशें कम न हों किसी सूरत 
चिराग आंधियों में जलते रहें ।
-सूर्यकुमार पांडेय
( लखनऊ  उ प़ ) 

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़ा-ए-सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुस्कुराए जैसे  । 
-- फिराक़ गोरखपुरी 
( रुबाई नामक संग़ह से )                 

काँटों को रूप का श्रृँगार बनते देखा है
मौन खामोशी को भी हुँकार बनते देखा है
इन बेगुनाहों को इतना भी न सताओ ए-हुक्मरानो
जुनूँ की चिंगारी को अँगार बनते देखा है ।
 ऐलेश अवस्थी 
 ( आगरा ,उ प़ )

बदलियां जाने किस दयार मेँ हैँ
लोग पानी के इन्तिज़ार मेँ हैँ
तुम मसीहा की सफ़ मेँ बैठे हो
हम दवाओँ के इश्तिहार मेँ हैँ ।
-- शबाब मेरठी 

फूलों से मिले घाव को काँटों से सी लिया 
इक ही नज़र में रूप के सागर को पी लिया 
पूरी सदी किसी ने शिकायत में काट दी 
हम ने तो एक पल में ज़िन्दगी को जी लिया । 
--  वेद प़काश वटुक 
( कैलाश पुरी , मेरठ उ प़ ) 

2 comments:

  1. बेहतरीन चुनिन्दा साहित्य पढने को मिला ..सीखने को भी सादर बधाई के

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