मेरे कुछ संस्मरण
उर्दू शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में कई जगह पढ़ा और सुना था कि वे बहुत क़ोधी थे और अहंकारी भी ।मैं उन से कभी नहीं मिला पर उन से एक बार पाला पड़ते पड़ते रह गया ।आगरा के एक कवि मित्र असरार अकबराबादी ने सूचना दी कि फ़िराक़ साहब मेरे शोधप़बन्ध आधुनिक हिन्दीऔर उर्दू काव्य की प़वृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन को आगरा के एक मुशायरे में लेते आए जिसे असरार ने देख लिया और मुझे सूचना दी कि मेरे शोधप़बन्ध के परीक्षक फ़िराक़ हैं ंजिस से मैं चिन्तित हो गया क्योंकि मैं ने उस में ंउन की आलोचना की थी ।मुझे ंआशंका हुई कि वे ख़राब रिपोर्ट लिखेंगे । यदि मौंखिक परीक्षा लेने आए तो मेरी ख़ैर नहीं ।लेकिन उन्होंने अच्छी रिपोर्ट लिखी और मुझे उपाधि मिल गई । इस से स्पष्ट हुआ कि वे उदार थे और हिन्दी की आधुनिक कविता के निन्दक हो कर भी हिन्दी जानते थे ओर गुणग़ाहक थे । काश मैं उन से कंभी मिल पाता ।
मैं ने यह भी सुना और कहीं पढ़ा था कि उन की हिन्दी कवि निराला से कहीं भेंट हुई और
फ़िराक़ ने अपने ढंग से हिन्दी कविता की निन्दा करनी शुरु कर दी ।निराला यह कैसे सहन कर
सकते थे ।उन्होंने फ़िराक़ की बात का प्रतिवाद किया ।निराला भी फ़िराक़ की तरह अक्खड़ थे ।
ंफिराक़ ने चुनौती दी कि हिन्दी में क्या कोई फ़िराक़ जैसा कवि है । निराला चूकने वाले व्यक्ति
नहीं थे । उन्हों ने तुरन्त चुनौती का जवाब चुनौती से दिया और पूछा क्या उर्दू में कोई निराला जैसा
शायर है ।
फ़िराक़ सुमित्रा नन्दन पंन्त और मैथिली शरण गुप्त की कविता के कटु आलोचक थे और
उन की भाषा को स्त्रैण ( या औरतों जैसी ) बताते थे । अंग़ेज़ी के दैनिक पत्र हिन्दुस्तान टाइम्स
में ंफिराक़ ने हिन्दी के विरोध में एक लेख लिखा था जो मैं ने पढ़ा था और उस की कतरन अब भी मेरे पास होगी ।उस में उन्हों ने हिन्दी को ंएक गँवारू भाषा बताया था और अनेक हिन्दी
कवियों की आलोचना की थी । हिन्दी जगत में उस लेख की बड़ी आलोचना हुई । हिन्दी वाले
उन्हें हिन्दी विरोधी समझने लगे । लेकिन मैं ने उन की रुबाइयों का संग़ह रूप शीर्षक से पढ़ा
है ,जिस की अनेक रुबांइयों में हिन्दीं और संस्कंृत शब्दों का प़योग हुआ है । संग़ह का शीर्षक
ही रूप है ,जो संस्कृत शब्द है ।
Xxxx. Xxxx
उर्दू शायर श्याम मोहन लाल जिगर बरेलवी मेरठ में रहते थे । उन से मेरा परिचय
था । दिसम्बर १९७२ में एक दिन उन से मिलने गया । तब उन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी से
अपनी एक मुलाक़ात का संस्मरण सुनाया । बाराबंकी के एक मुशायरे में जिगर बरेलवी
भी शामिल थे और फ़िराक़ उस की अध्यक्षता कर रहे थे । अगले दिन फ़िराक़ अहमक़
फफूंदवी के साथ जिगर के घर पर गये । बातचीत में फ़िराक़ कहने लगे कि ग़ालिब के
एक शेर की ज़मीन पर ग़ज़ल नहीं लिख पा रहा हूँ । ग़ालिब का शेर है --
की उस ने मेरे क़त्ल के बाद तौबा
हाय उस ज़ूदपशेमां का पशेमां होना ।
जिगर बरेलवी ने एक शेर कहा --
ग़ौर से हम बाज़ भी आने के नहीं
गवारा नहीं उस का पशेमां होना ।
फ़िराक़ इस शेर पर उछल पड़े और खुल कर दाद दी और जिगर बरेलवी को उस्ताद
शायर माना ।वे गुणी की क़द़ करते थे ।
रात के मुशायरे में फिराक़ ने एक शेर में गुन्चगी शब्द का प़योग किया था जिस पर जिगर ने
टोक दिया । फ़िराक़ तुनक कर बोले -- जब अफसुर्दगी , पज़मुर्दगी , ख़ुशनगी
वग़ैरा चलते हैं तो ग़ुनचगी भी चल सकता है । जिगर बोले --जनाब हर लफ़्ज़ के
इस्तैमाल के अपने अपने क़ायदे होते हैं ।अफ़सुर्दगी सही है , ग़ुन्चगी ग़लत है । फ़िराक़
ने पूछा - -- क्या क़ायदे हैं ? जिगर ने कहा -दस पन्द्रह मिनट की सोहबत में नहीं आते ।
दो कायस्थों में दोस्ताना बहस हो रही थी । दूसरे लोग मज़ा ले रहे थे । जिगर और फिराक़
दोनों हिन्दू कायस्थ थे ।
-- सुधेश
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