अपने प़िय मित्र और अनुजवत् डा श्याम निर्मम अब हमारे बीच नहीं हैं , पर उन के
नव गीतों के स्वर जैसे मेरे कानों में गूँज रहे है ं । उन का एक गीत यहाँ प़स्तुत है ।
तुम शिखर बनो
हम तो नींव हैं
गहरे में और भी धसेंगे !
सूख गई
सलिला प्राणों की
दर्दों के जलतरंग बज उठे,
बचपन के, योवन के
मोहक मादक गुंजन
सपनो में सिरज उठे !
तुम मुखर बनो
हम तो मौन हैं
धड़कन के नगर में बसेंगे !छ
लिपटे हैं
शाख-शाख
सोमरसी चितवन के
किसलय एहसास
टूट गये
प्रकृतिजन्य
कल के सब दम्भी विश्वास !
तुम विपिन बनो
हम तो फूल हैं
झर-झर कर रेत पर हसेंगे !
आँखों के
बरसाती बादल
उमड़-घुमड़ रोज ही बरसते,
होठों पर
प्यास के पठार
बूँद-बूँद नीर को तरसते !
तुम जलधि बनो
हम तो द्वीप हैं
मोती-से सीप में सजेगे !
अँधियारा लील गया
मन के उजयारे की आब,
कुछ ने ही
पहचाने
तन के अभिशापित
अनुबन्धों के घाव !
तुम अमर बनो
हम तो जन्म हैं
बार-बार बाँहों में मृत्यु को कसेंगे !
-- डा श्याम निर्मम
( २४ दिसम्बर २०१२ को दिवंगत )
उन के पुत्र पराग कौशिक के सौजन्य से ।
Shabdon ka bada hi sundar chayan.
ReplyDeleteBhaavpuurn prabhaavi rachna.