श्री जगदीश पंकज हिन्दी के सुपरिचित नवगीतकार हैं , जो लम्बे समय से गीत साधना
में लगे हैं । गीत और नवगीत की जो उपेक्षा अनेक वर्षों से हो रही है , उस का एक
प्रमाण पंकज जी का पहला नवगीत संग्रह " सुनो मुझे भी " है , जो हाल में ही छपा
है , जिस की एक प्रति उन्होंने मेरे पास भेजी है । उन के चार नवगीत नीचे दिये जा
रहे हैं , जिन को पढ कर पाठक पंकज जी की कवि प्रतिभा का परिचय पा सकेंगे ।
--- सुधेश
(1)
क्यों असंगत हूँ
मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक,अचम्भित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी
खुरदरापन ही भरा
जब जिंदगी की
हर सतह पर
फिर कहाँ से खोज
चेहरे पर सजे
लालित्य मेरे ,
जब अभावों के
तनावों के मिलें
अनगिन थपेड़े
तब किसी अवसाद
के ही चिन्ह
चिपकें नित्य मेरे ।
मुस्कराते फूल
हंसती ओस
किरणों की चमक से
हैं मुझे प्रिय
किन्तु, हैं अनुताप में
जलते हुए भी ।
जब बदलते मूल्य
जीवन के,
विवादित आस्थाएं
तब समायोजित करूँ
मैं किस तरह से
इस क्षरण में ,
देख कर अनदेख
सुनकर अनसुना
क्यों कर रहे हैं
वे ,जिन्हें सच
व्यक्त करना है
समय के व्याकरण में ।
भव्य पीठासीन,मंचित
जो विमर्शों में
निरापद उक्तियों से
मैं उन्हें कैसे
कहूँ अपना
सतत गलते हुए भी ।
मैं उठाकर तर्जनी
अपनी, बताना चाहता
संदिग्ध आहट
किस दिशा,किस ओर
खतरा है कहाँ
अपने सगों से ,
जो हमारे साथ
हम बनकर खड़े
चेहरा बदल कर
और अवसरवाद के
बहरूपियों से ,गिरगिटों से,
या ठगों से ।
मैं बनाना चाहता हूँ
तीर, शब्दों को
तपाकर
लक्ष्य भेदन के लिए
फौलाद में
ढलते हुए भी ।
-जगदीश पंकज
***
(2)
मैं सजग हूँ ,सुन रहा हूँ
तुम कहो
निश्चिन्त होकर
मैं सजग हूँ ,सुन रहा हूँ ।
समय की
पदचाप के संकेत
निष्ठुर और निर्मम ,
निर्भया या दामिनी को
दे सहे हैं
मौन संयम ।
क्रोध है
प्रतिरोध ,औ'
प्रतिकार को मैं, चुन रहा हूँ ।
मिल रहे अब भी
दलित को दंश
अत्याचार भारी ,
क्रूर है
प्रतिपक्ष भी
बनकर खड़ा आतंककारी ।
जोड़कर
विश्वास के धागे
परस्पर बुन रहा हूँ ।
सुन रहा हूँ
मौन औ'असहाय
बचपन की व्यथा को ,
चैनलों की
बौद्धिक बहसें
विमर्शों की कथा को ।
सार्थक संवाद
गायब देख ,
मैं सिर धुन रहा हूँ ।
-जगदीश पंकज
***
(3)
अनसुना है पक्ष मेरा
अनसुना है पक्ष मेरा
वाद में ,
प्रतिवाद का ।
साक्ष्य अनदेखा रहा आया
अभी तक
जो मुझे निर्दोष घोषित
कर सकेगा ,
दृष्टिबंधित जो हुआ
पूर्वाग्रहों से
वह तुम्हें अभियुक्त
क्यों साबित करेगा ।
वह व्यवस्था क्या
जहाँ, अवसर
नहीं संवाद का. ?
जब तुम्हारे ही
बनाये मानकों के
तुम नहीं अनुरूप
फिर अधिकार कैसा ,
गढ़ रहे फिर भी
नए प्रतिमान जिनमें
साँस भी हमको
मिले उपकार जैसा ।
क्यों करूँ स्वीकार
बिन उत्तर
मिले परिवाद का. ?
क्यों नहीं संज्ञान में
मेरी दलीलें
दृष्टि में क़ानून की
समकक्ष हूँ मैं ,
हो भले विपरीत ही
निर्णय तुम्हारा
पर सदा अन्याय का
प्रतिपक्ष हूँ मैं ।
साँस क्यों लूँ मैं
तुम्हारी, दया पर
आह्लाद का. ।
-जगदीश पंकज
***
(4)
मैं निषिद्धों की गली का नागरिक हूँ
भीड़ में भी
तुम मुझे पहचान लोगे
मैं निषिद्धों की
गली का नागरिक हूँ ।
हर हवा छूकर मुझे
तुम तक गई है
गन्ध से पहुँची
नहीं क्या यन्त्रणाएँ ,
या किसी निर्वात में
रहने लगे तुम
कर रहे हो जो
तिमिर से मन्त्रणाएँ ।
मैं लगा हूँ राह
निष्कंटक बनाने
इसलिए ठहरा हुआ
पथ में तनिक हूँ ।
हर कदम पर
भद्रलोकी आवरण हैं
हर तरह विश्वास को
जो छल रहे हैं ,
था जिन्हें रहना
बहिष्कृत ही चलन से
चाम के सिक्के
धड़ाधड़ चल रहे हैं ।
सिर्फ नारों की तरह
फेंके गए जो
मैं उन्हीं विख्यात
शब्दों का धनिक हूँ ।
मैं प्रवक्ता वंचितों का,
पीड़ितों का
यातना की
रुद्ध-वाणी को कहुंगा ,
शोषितों को शब्द
देने के लिए ही
हर तरह प्रतिरोध में
लड़ता रहुंगा ।
पक्षधर हूँ न्याय
समता बंधुता का
मानवी विश्वास का
अविचल पथिक हूँ ।
---जगदीश पंकज
सोमसदन 5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्र नगर ,साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद -201005
मोब.08860446774 , e- mail: jpjend@yahoo.co.
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