(३ )
झूलते मुँडेर
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हे स्वरपति खग !
तुम ही तो हो,
जो चले आते हो
पहर प्रभात
ऋतुराज का सन्देश लेकर
और गाते हो अपनी राग-ध्वनि में
और फैला जाते हो क्षणभर के लिए
वासंतिक खुशियाँ।
और छोड़ जाते हो चितवन में
वह लम्बित आनन्द
मैं जिसको ढूंढता हूँ
अरण्यजन के इस कोलाहल में ।
हे स्वरपति खग !
तुम ही तो हो
जो गाते हो निर्विरोध, निर्बाध
और अपने स्वर-गुंजन से
प्रेम को परिभाषित करते हो,
और तब तक गाते रहते हो
जब तक नहीं मिलता कोई
तुम्हारे राग से राग ।
हे स्वरपति खग !
तुम आज भी वही हो
और तरु का यह किनारा भी,
जो मानव विरोध के बाद भी
तनकर खड़ा हो जाता है तुम्हारे आने से पहले,
मगर आज नहीं कोई
तुमसे राग मिलाने वाला ।
हे स्वरपति खग !
चलो! मैं ही आज
तुम्हारे राग से राग मिलाता हूँ
"कुऊ...कुऊ...कुऊ...!"
मगर तुम कल भी आओगे?
इस जनअरण्य में
जब मैं नहीं रहूँगा
और नहीं रहेंगे
तरु के ये झूलते मुँडेर।
- सर्वेश कुमार मिश्रा
भरथरा (लोहता), वाराणसी
उत्तर प्रदेश-२२११०७
मोबाइल - ०८१२-७७७७-४७७
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