Thursday 18 June 2015

सन्तोष खन्ना की कविताएँ





कुछ नया रच 

कुछ नया कह 
कुछ नया रच ।
कुछ और उठ 
कुछ और चल 
कुछ और लुट 
कुछ और खप 
कुछ और जच ।
कुछ नया कह 
कुछ नया रच ।
बातों का ढंग
भावों का रंग 
शब्दों के संग 
सुर का संगम 
कुछ और कर 
कुछ और तप 
कुछ नया कह 
कुछ नया रच ।

कुछ और सुन
कुछ नया चुन
कुछ नया गुन
नहीं बुरा कह 
नही बुरा सह 
कुछ नया जप । 
कुछ नया कह 
कुछ नया रच
भाषा भोथरी
लिजलिजे बिंब
 सबल भाव
क्यों विचार कुंद
सब छोड़ छाड़
कुछ नया भज । 
कोई नया सच 
कुछ नया कह 
कुछ नया रच 
मत और गिर 
मत और फिर
मत और घिर
मत भाग भाग
अब जाग जाग
कुछ फाग आग
नूतन सूर्य
नूतन किरण 
कुछ और लख ।
कुछ नया कह 
कुछ नया रच
कुछ नया रच
--- सन्तोष खन्ना 

       क्या इन्सान बस लाचार 

विजय रथ
दौड़ाने वाला
जल-थल-हवा में
विजय-दुन्दुभी 
बजाने वाला
नहीं रोक पा रहा
आज संहार , 
कहीं जल का
निर्मम प्रवाह
बहा ले जाता
अनेक अपने प्रिय
बार  बार रहा कांप
धरा का धरातल
मच रहा है तांडव
संहार का विनाश  का । 
चाँद-सितारों पर
विजय रथ
दौड़ाने वाला
जल-थल-हवा में
विजय-दुन्दुभी 
बजाने वाला
नहीं रोक पा रहा
आज संहार ।
कहीं जल का
निर्मम प्रवाह
बहा ले जाता
अनेक अपने प्रिय
कही धरती निगल रही 
आशियाने
आसरा देने वाले घर
बन रहे क़ब्रिस्तान 
बस हो रहा संहार । 
निर्मित हो रहा
दर्द और जख्मों का
संसार 
क्या कुपित है
शिव
खोल तीसरा नेत्र
कर रहे संहार ?
नहीं कुछ कर पा रहा
इंसान
बस बेबस
लाचार
-- सन्तोष खन्ना 
( दिल्ली ) 

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