1.
सब तो न किताबें कहती हैं
इतिहास गवाह तो होता है घटनाओं का
लेकिन सारा कब कलम लिखा करती हैं?
जो उत्कीर्ण पाषाणों में, सब तो न किताबें कहती हैं,
सत्ताएं सारी ही स्वविवेक से, पक्षपात करती हैं।
किसके लहू से रंगी शिला, किसका कैसे मोल हुआ
अव्यक्त मूक कितनी बातें, धरती में सोया करती हैं
निज स्वार्थ लिए कोई, जब देश का सौदा करता है
उठा घात अपनों की, धरती भी रोया करती है।
मीरजाफर- सा कायर जब घोड़े बदला करता है
दो सौ सालों तक धरती, बोझा ढोया करती है
ऐसा बोझा इतिहास रचे, सच्चे नायक खो जाते
मिथ्या कृतियां सूरमाओं की सत्ता नकारा करती हैं।
आज़ादी का श्रेय अहिंसा लेती जब-जब
साहसी वीरों के बलिदान हवि होते हैं
नमन योग्य जिनके चरणों की धूलि
स्मृतियां भी उनकी खो जाया करती हैं।
कुटिल कलम इतिहास कलम करती जब
खून के आंसू पत्थर भी रोया करते हैं
लिखने वाले लिख तो देते हैं निराधार
युगों युगों पीढ़ियां, भ्रमित हुआ करती हैं।
2.
माँ का आँचल
नेह की बारिश बहुत थी
माँ तेरा आंचल नहीं था.
मुझको तेरा बल नहीं था
मचलती ठुनकती रूठती हंसती
दुलार भरी बाहों में पलती
दीखती थी सारी सखियाँ
माँ मुझे संबल नहीं था.
कर दिया तुमने अलग जब
ममता की यूँ न कुछ कमी थी
अश्रुओं की थी नमी,
स्नेह की पाती कईं थीं
माँ मेरी यूँ तो कईं थी
एक तेरा आँचल नहीं था
मजबूर कितनी तुम थी उस दिन
कितने तेरे अश्रु गिरे थे
छोड़ आई थी मुड़े बिन
मैं समझ पाती हूँ अब
तिनके सी तब सागर में थी
कश्ती जिसे साहिल नहीं था.
फ़र्ज़ क़र्ज़ अब चुक गए सब
चुक गया बचपन बेचारा
चुक गए सूखे से कुछ क्षण
आयेंगे न अब दोबारा
सालता है अब तलक
वो पल जो मेरा कल नहीं था.
3.
टुकड़े टुकड़े बेचा जीवन
बेच दिया सारा ही मन
मुस्कानें तो बेची ही थी
बेच दिए सब दर्द गहन।
सायों में लिपटे कुछ पल थे
गुँथी हुई पीड़ा थी सघन
खुले आम नीलाम किये सब
बाज़ार धर दिया देह कफ़न।
नग्न आत्मा ले फिरते अब
किससे क्या पा जाओगे
जीवन बीता अर्थहीन सा
जान पाए क्या अपना मन?
4.
मन जीवन
देह और मन का संघर्ष है बरसों से
कि दोनों ही अकसर साथ नहीं होते
देह जीती है अपने वर और श्राप
कभी समतल धरती पर तो कभी
उबड़-खाबड़ घने गहरे जंगल में
और मन बुनता है घोंसला आकाश में
वो जीता है अकसर कल में
सपनों में, पुरानी डायरियों के पन्नों में
और कभी बैठ जाता है
दहकते ज्वालामुखी के मुहाने पर
फूंकता है उसमें शीतलता
कभी शांत हो जाती है ज्वाला
तो कभी राख हो जाता है मन।
जहां देह होती है
अकसर मन नहीं होता
यह जानते हुए कि
कहीं होकर भी न होना
समय को खो देना है
मन बैठा रहता है
ऊँचे वृक्ष की फुंगी पर
वृक्ष के फलों से सरोकार नहीं
वह देखता है दूर तलक
सपने सुनहरे नए कल के।
देह जब अर्जित कर रही होती है
अपने अनुभव और ज़ख्म सुख के
मन गुनगुनाता है
गीत किसी और क्षण के
किंतु श्रापित है मन
युगो-युगों से फिर-फिर
वही दोहराता आया है
उम्र भर देह से रहकर जुदा
देह के बाद न रह पाया है
लाता है नियति एक ही
चलती नहीं किसी की जिसपर
मन जो रहता नहीं देह का होकर
खत्म हो जाता है देह संग जलकर।
फिर भी मन असीम अनंत
नन्हीं चिड़िया सा संभालो इसे
कि जब टूटता है मन
देह में प्राण रहें न रहें
रह जाता नहीं उसमें जीवन।
5.
दिल मन तो नहीं
जो दिल है
वो मन तो नहीं!
कि उड़ा करता है मन
पाखी सा अलमस्त
चंचल निश्छल
पल में घूम आता है
कितनी सदियां,
पर्वतों से वादियों में
दौड़ता मचल मचल
कभी गहरे नापता है
बीहड़ जंगल।
...और दिल?
एक कब्रगाह है दिल
कि उसमें दफन हैं
दर्द के असंख्य पल
यादों की कब्रों पर
रोज़ डलता है
आंसुओं का नमक
यादें फिर भी गलती नहीं
हां इतना तो है
कि ये कब्रगाह है
शीशे का इक ताजमहल।
कि दर्द की मज़ारें भी
हुआ करती कोमल।
या फिर जो है ये दिल
है शमशान कोई
जिसमें सुलगते रहते हैं
ख्वाब कई रात और दिन
लौ ऊंची किया करते
अमरज्योति की मानिंद
के जलते भी हैं
सुलगते भी हैं
और आगे बढ़ने की
राह दिखाते भी हैं।
कि रूह है मन
तो रूह का लिबास है दिल...
6.
थपकी से सोती थी जब मैं
हिंदी में सुनती थी लोरी
बाहों के पलने में भी
बांधी हिंदी ने ही डोरी।
साँसे माँ की, माँ के गीत
हिंदी में महसूस किए
दिल के सारे ही रिश्ते
हिंदी में अब तक हैं जिए।
पाठ पढ़ा जब भी अंग्रेजी
हिंदी ने विश्वास दिया
बनी स्नेह भरा आलंबन
मित्रों का उपहार दिया।।
मौन भी बांचा क ख ग ने
भावों में मृदु तान भरी
तरल प्रेम उतरा नैनों में ।
हिंदी में तब बाँधी डोरी
हिंदी मन में रही सिखाती
अंग्रेजी जब जब बोली
पग पग पर साथ निभाया
सदा रही मेरी हमजोली
हिंदी लेकर दूर गयी
दुनिया में सम्मान दिलाया
रग रग में भरी स्फूर्ति
हिंदी में खुद को है पाया।
7.
अब छत पर बिस्तर नहीं लगते।
बरसों बीत गए
चाँदनी में नहाए हुए
अब तो छत पर
बिस्तर नहीं लगते।
रिमोट, प्लेस्टेशन...
हाथ हुए जबसे
दादा की कहानियाँ
भटक गईं रस्ते।
साँझ को मिलता नहीं
कोई चौबारों पर
आप ही आप
कट गए रस्ते।
बैठे हैं चुपचाप एयरकंडिशनर में
भूल गए गर्मी की मस्ती
और खेल में काटे
दिन हँसते हँसते।
वो गिट्टियाँ....
अक्कड़-बक्कड़
साँप-सीढ़ी, कैरम,
कँचों के मासूम से खेल।
बेकार कपड़ों से बनी गुड़ियाँ
मरी परंपराओं की तरह
बस मिलती हैं
म्यूजियम में।
दादी भी हाइटैक......
ला देती हैं बार्बी,
दादा के खिलौने
रिमोट से चलते।
हाल दिल के
दिलों में रहते हैं
औपचारिकताओं के हैं
नाते-रिश्ते।
आधी रात तक
बतियाता नहीं कोई
क्योंकि छत पर तो
अब बिस्तर नहीं लगते।
bhawnasaxena@hotmail.comPage 1
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इस मंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार सर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, मोहक, भावपूर्ण कविताएँ। बधाई
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-02-2019) को "तम्बाकू दो त्याग" (चर्चा अंक-3243) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'