. ग़ाज़ियाबाद के युवा ग़ज़लकार मृत्युंजय साधक की ग़ज़लें
मुझे पसन्द आईं । आप भी इन का आनन्द लें ।
सुधेश
ठ
सपनों की क्या बात करें जब सारे सपने झूठे हैं
अपनों की क्या बात करें जब सारे अपने रुठे हैं
बच्चों की किलकारी में ही दिख जाते हैं गिरधारी
उनकी माया की छाया में कितने भाव अनूठे हैं
मां की आंखों में हर बच्चा सूरज भी है चंदा भी
भले वो दुनिया के नजरों में काले और कलूटे हैं
बिटिया की आंखों में हरदम एक उदासी रहती है
पैसों की खातिर कितने ही रिश्ते उसके टूटे हैं
मदिरालय ने मां की चूड़ी, कंगन भी हैं पी डाले
गुल्लक क्या फूटी गुल्लक के साथ भाग्य भी फूटे हैं
सच पूछो तो प्रेम का रस ही मीठा है और सच्चा है
शबरी से कब कहा राम ने बेर तुम्हारे जूठे हैं
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मुहब्बत का अजब यह सिलसिला है
जहां खुशियां मिलीं गम भी मिला है
मुझे मिलकर भी तू मिलती नहीं क्यूं
यही ऐ जिन्दगी तुझसे गिला है
किसी की जिंदगी सुख का महल है
किसी की जिंदगी दुख का किला है
जो बनकर राम रहते हैं जहां में
सदा वनवास ही उनको मिला है
भला शूलों को फिर क्यों दोष दूं मैं
बदन मेरा तो फूलों से छिला है
जहां एहसास भी जीवित मिला है
मुहब्बत ही हसीं वो सिलसिला है
सुबह के वक्त पोखर कितना खुश है
कमल का फूल मुद्दत में खिला है
मेरा भी साथ इक दिन छोड़ देगा
मेरे संग सांस का जो काफिला है
हिमालय ही इरादों में है जिसके
जिधर भी देखिए उसका किला है
दोबारा जख्म वो दुखने लगे हैं
जिन्हें लालच के धागों से सिला है
बड़ा उपकार कैकेई का देखो
जो असली राज भीलों को मिला है
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बेचैनी के क्षण भी अक्सर आते हैं
लेकिन हमको देखो फिर भी गाते हैं
मन के आंगन पांव धुलाती हैं सुधियां
हम आंखों से गंगाजल छलकाते हैं
मां को भी अब दाई कहकर मिलवाया
अपनों से कैसे ये रिश्ते नाते हैं
बदलेगी दुनिया बदलेगें लोग यहां
मन को हम ये कह -कह कर बहलाते हैं
जो रहते हैं केवल दुनियादारी में
बात कहां वो साधक से कर पाते हैं
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मन को मन से मनाना पड़ा
जिंदगी को सजाना पड़ा
कल मिलेंगी तुम्हे रोटियां
ये बहाना बनाना पड़ा
दुख भी जीवन का इक पक्ष है
राम को वन में जाना पड़ा
कैसे रिश्ते हुये अजनबी
प्यार को भी जताना पड़ा
जिंदगी साथ साधक के है
मौत को ये बताना पड़ा
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दिल में मेरे उतर वो आया है
दर्द में जो भी मुस्कराया है
पर्वतों के कठोर सीने पर
देवदारों ने घर बसाया है
मेरा अपना यहां कहां कुछ है
सांस का धन भी तो पराया है
प्यार के गांव में अंधेरा था
अब ये किस ने दिया जलाया है
छांव जिसको मिली है साधक को
मां के आंचल का ही तो साया है
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डर ,संशय , बेचैनी क्या है
हर दिल में पुश्तैनी क्या है
खूनों के सौदागर पूछें
साखी ,सबद , रमैनी क्या है
नदियां सबकी आंखों में हैं
गंग ,यमुन तिरवेणी क्या है
सब तो उसके ही बंदे हैं
हिंदू ,मुस्लिम , जैनी क्या है
दिल को दिल से मिल जाने दो
आरी ,चाकू ,छैनी क्या है
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सभी के दिल में घुल जाने चली है
मुहब्बत एक मिसरी की डली है
लहू के दाग हैं पूरे शहर में
जहां देखो वहीं पर खलबली है
रसोई घर की अगनी ने बताया
कोई कोमल कली फिर से जली है
जो आया वो निकल पाया कहां फिर
सियासत की जमीं ये दलदली है
शहर भर में भटकता फिर रहा हूं
न जाने कौन सी मेरी गली है
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गूंज रहा जो कण -कण है
ये धरती का गायन है
जीवन क्या है जीवन क्या
इक नाटक का मंचन है
संग रहकर जो दूर रहा
मेरे मन का मधुवन है
खुद से खुद की अनबन है
यूं आंखो में सावन है
मेरे दिल की धड़कन में
तेरे दिल की धड़कन है
चांद रात में आयेगा
दिन भर की ही बिछुड़न है
मन में जेठ -दुपहरी है
पर आंखों में सावन है
नई खुश्बुएं देकर भी
सहमा -सहमा उपवन है
सांझ दिवस की सांझ ही है
भोर तो उसका बचपन है
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उस घर आना -जाना भी है
रोना भी मुस्काना भी है
चुप रह-रह कर इन होठों पर
चुप्पी को चिपकाना भी है
प्यार उगाकर नफरत के सब
पेड़ों को कटवाना भी है
जीवन एक हकीकत भी है
जीवन एक फसाना भी है
रस्ता देख रही है शबरी
रघुबर तुमको आना भी है
सीमा पर नापाक नजर है
यौवन को गुहराना भी है
पंछी घर से निकला तो है
वापस घर पे आना भी है
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जो कभी धूमिल न हो ऐसा सबेरा लिख रहा हूं
मन की उजली पुस्तिका में नाम तेरा लिख रहा हूं
प्रेम की पावन गली में हानि क्या है लाभ क्या है
खुद को खुद ही लूटने वाला लुटेरा लिख रहा हूं
आस की सारी मछलियां जाल में जिसके फंसी है
वक्त को ही आज में ऐसा मछेरा लिख रहा हूं
जिनके उजलेपन ने हमसे रौशनी सब छीन ली हैं
उन उजालों के लिए अब मैं अंधेरा लिख रहा हूं
सारी दुनिया को खुशी मिलती रहे बस इसलिए ही
अपने दिल को मैं गमों का ही बसेरा लिख रहा हूं
जन्म से ही जिसके संग सांसें सफर करती रही हैं
जिंदगी को बस उन्हीं सांसों का फेरा लिख रहा हूं
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कमरों का है पुजारी जन -जन बदल गया है
जो घर को जोड़ता था आंगन बदल गया है
सुनने को वक्त है कब अपने ही मन की बातें
कितना हुआ मशीनी जीवन बदल गया है
दिन -दूना बढ़ रहा है काला कहा गया है
मेहनत से जो मिले था वो धन बदल गया है
स्वागत जो कर रहा था सदियों से द्वार पर वो
नफरत से देखता है , तोरण बदल गया है
हथियार बन गये हैं बच्चों के अब खिलौने
लगता है आजकल का बचपन बदल गया है
पौधों को सींचते हैं स्वारथ के ये रसायन
पूरे ही बाग का अब जीवन बदल गया है
एहसास की नदी में क्यों डुबकियां लगाए
अब पत्थरों में रहकर ये मन बदल गया है
लाता था जो फुहारें , बिजली गिरा रहा है
अब हो न हो ये अपना सावन बदल गया है
गुल अब चुभनभरे हैं , काटे महक रहे हैं
माली बदल गया है उपवन बदल गया है
मृत्युंजय साधक
प्रोड्यूसर , न्यूज़ नेशन
ई 48 गौड़ होम्स , गोविन्दपुरम , ग़ाज़ियाबाद (उ प्र )
Wah... bahut hi bhavpoorna kavitaoon ka uttam sanklan. Aapki kavita me Prabhu Ram jaroor rahte hain. Kuch kavitaaon me to aisa laga ki meri hi baat nahi ja rahi hai....
ReplyDeleteआभार सर
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