मखमली आलोचना
ऊँची कुर्सी पै धरे
बौने की छोटी छोटी कवितायें
महान लगती हैं
सरकारी आलोचक को
जिस की बाज़आंखें
ढूँढ लेती हैं अपना शिकार
तृप्ति के बाद सड़े दाँतों
पीक लगे होंठों से
झड़ती है मखमली आलोचना
जिस का रंग
वक़्त की धूप में
उड़ जाता है ।
(ः सुधेश )
नन्ही चिड़िया
चिड़िया की नन्ही जान
फुदक आ बैठी मेरे सम्मुंख
नन्ही आँखों से देख रही क्या
शायद कोई नन्हा सपना ,
नन्हे पंखों से थिरक रही डाली पर
मुँडेर पर खिड़की पर दरवाज़े पर
फुदक फुदक क्या ढूँढ रही
कोई दाना
या अपना साथी
जिस के साथ चहचहाए क्षण भर
उस की चिहुंक न सुनता कोंई
पर वह भी जीवन संगीत ।
समय शिकारी झपट पड़ा उस पर
नन्हे पंखों ने
दूर दूर तक फैला आकाश छुआ
पर नन्ही जान कहाँ तक लड़ती
क़ूर बाज़ से
चीं चीं चीं चीं का स्वर
खो गया मेघ गर्जन में ।
लेकिन हर रोज़
चिड़िया फुदक रही डाली पर
चिहुंक रही
नन्ही आँखों से देख रही
नन्हे सपने ।
-- सुधेश