Wednesday 12 December 2012

कुछ कविताएँ

                  मखमली  आलोचना
ऊँची कुर्सी पै धरे 
बौने  की छोटी छोटी कवितायें
महान लगती हैं 
सरकारी आलोचक को 
जिस की बाज़आंखें 
ढूँढ लेती हैं अपना शिकार 
तृप्ति के बाद सड़े दाँतों
पीक लगे होंठों से 
झड़ती है मखमली आलोचना 
जिस का रंग
वक़्त की धूप में 
उड़ जाता है ।
(ः सुधेश )

                           नन्ही चिड़िया 
 चिड़िया की नन्ही जान 
 फुदक आ बैठी मेरे सम्मुंख
 नन्ही आँखों से देख रही क्या 
 शायद कोई नन्हा सपना ,
 नन्हे पंखों से थिरक रही डाली पर 
 मुँडेर पर खिड़की पर दरवाज़े पर 
  फुदक फुदक क्या ढूँढ  रही 
  कोई दाना 
  या अपना साथी 
  जिस के साथ चहचहाए  क्षण भर 
   उस की चिहुंक न सुनता कोंई 
  पर वह भी जीवन संगीत ।
                     समय शिकारी झपट पड़ा उस पर
                     नन्हे पंखों ने 
                     दूर दूर तक फैला आकाश छुआ 
                     पर नन्ही जान कहाँ तक लड़ती 
                      क़ूर  बाज़ से 
                      चीं चीं चीं चीं का स्वर 
                      खो गया मेघ गर्जन में ।
    लेकिन हर रोज़ 
    चिड़िया फुदक रही डाली पर 
    चिहुंक रही 
    नन्ही  आँखों से देख रही
     नन्हे सपने ।
-- सुधेश 

 
      

चण्डीगढ़ की हिन्दी कवयित्री श्रीमती अलका कांसरा की कुछ कविताएँ

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