Saturday 16 February 2013

साहित्य है क्या

               साहित्य है क्या 

साहित्य हो या कला का कोई रूप , जैसे संगीत ,चित्रकला ,नाट्य , वास्तु कला , नृत्य 
आदि सब को पश्चिमी मानदण्डों से देखने परखने की प़वृत्ति आजकल सामान्य बात है । मैं इस 
लेख मे साहित्य पर अपने ढंग से विचार करना चाहता हूँ ।
 आख़िर साहित्य है क्या । साहित्य को अंग़ेज़ी के लिटरेचर का पर्याय माना जाता है । पर हिन्दी 
और संस्कृत की परम्परा में वाँगमय शब्द भी है ,जो साहित्य से अधिक व्यापक शब्द है और 
इस लिए  उस से भिन्न अर्थ का वाचक है ।अंग़ेज़ी के लिटरेचर में जो कुछ लिखित या  मुद्रित रूप में है , चाहे दवाइयों, मशीनों ,उपकरणों की सूचना देने वाला विवरण या पैम्फ्लैट  हो , वह लिटरेचर है ।  पर मैं साहित्य को लिटरेचर नहीं मानता , यद्यपि वह उस का पर्याय अवश्य है । 
 भारतीय परम्परा में साहित्य कला से भी भिन्न है । मह्कवि जय शंकर प़साद  की पुस्तक 
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध में काव्य को , जो साहित्य का एक अंग है , कला से 
भिन्न बताया गया है । पुराने ज़माने में काव्य शब्द आज के साहित्य की तरह व्यापक अर्थ का 
 वाचक था , लेकिन अाज काव्य केवल कविता का ही अर्थ देता है ।  कला के अनेक रूपों के 
सूक्ष्म स्तर  भी हैं , पर केश सज्जा को भी चौंसठ कलाओं में स्थान दिया गया था । काव्य या 
साहित्य का ऐसा स्थूल स्तर नहीं हो सकता । 
  लेकिन आज कल अनेक विचारक साहित्य को एक कला ही मानते हैं और उस का मूल्याँकन 
कला के मानदण्डों पर या कला का मूल्याँकन साहित्य के मानदण्डों पर करना चाहते हैं । 
अब अधिकांश रचनाकार साहित्य या कविता को भी एक कला समझते हैं और साहित्यकार 
को एक कलाकार माना जाता है । कविता या साहित्य का शिल्प या टेकनीक होता है  पर 
शिल्प या टेकनीक ही कविता और साहित्य नहीं होती । कविता और साहित्य टेकनीक से 
इतर या उस से आगे की चीज़ है । कविता अगर केवल टेकनीक है तो कवि और टैकनीशियन 
अथवा उपन्यासकार और मेकेनिक में क्या अन्तर रहा । ज़ाहिर है कि कविता केवल कला 
नहीं है और साहित्य के हर रूप की एक टेकनीक होती है  पर साहित्य कुछ फ़ार्मूलों या शिल्प 
के प़कारों का नाम नहीं है । साहित्य में रचनाकार की जीवनदृष्टि , उस का अभिप़ेत और 
सन्देश भी होता है   ,जो रचना का अविभाज्य अंग होता है , जो उस में निबद्ध या गुम्फित 
होता है । अभिप़ेत को रचना में निबद्ध या गुम्फित करने का कौशल ही उस की कला या उस 
की टेकनीक है । विशेष प़योगों ,प़तीकों ,विम्बों ,शब्दों आदि के उपयोग का नाम ही कला नहीं 
है । वह तो कला का छद्म है । ऐसे छद्म का परिचय कुछ प़योग वादी ,अकवितावादी कवियों 
ने दिया था । अनेक लोगों के लिए आज भी नयी कविता का सपना जारी है , जबकि वह 
इतिहास की वस्तु बन गई है । 
  
    आज भी ऐसे अनेक कवि हैं जो मुक्तिबोध की भौंडी नक़ल करते हुए फैंटेसी को ही कविता 
की सिद्धि मानते हैं । मुक्तिबोध के लिए फैंटेसी एक शिल्प था , उन के अनुकरण कर्ताओं के
लिए वही कविता का उत्कर्ष है । यह कह कर मैं मुक्तिबोध के महत्व को कम नहीं  करना चाहता ,। पर अनेक कवि  उन की लकीर पीट रहे हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो अभी  अकविता के गुण गा रहे हैं । लगता है कि वे कविता को उसी ढर्रे पर चलाना चाहते हैं , जिस का युग बीत गया ।वे कविता 
नहीं  शिल्प या टेकनीक लिंख रहे हैं । 
   गीत को अनेक लोग अभी भी कविता या उत्तम कविता नहीं मानते , क्योकि उन में से कुछ 
अपने लेंखन की शुरुआत कविता से करने के बाद उस में असफल हो कर आलोचना में कूद
गये और अच्छे अच्छों की खाट खड़ी कर के कविता के मान दण्ड लिखने और बकियाने 
लगे । वे उत्तम कविता लिखने में असफल  हो कविता की राजनीति करने लगे । कुछ अपने 
ऊंचे पदों की सीढ़ी लगा कर कविता के शीर्ष पर पहुँच गये ।
  यही गल्प साहित्य में हुआ । कुछ ऐसे शलाका पुरुष हैं जो पत्रिकाओं के सम्पादक  बन कर 
कहानी और उपन्यास के मानदण्ड निर्धारित करने लगे । साहित्य आज कल पीछे छूटता 
जा रहा है फ़ार्मूले लिखे जा रहे हैं अथवा ख़ास विचारधारा लिखी जा रही है । लगता है कि 
साहित्य साधना का क्षेत्र नहीं तिकड़मों , गुटबन्दी और दादागिरी का अखाड़ा बन गया है ।
  वास्तविक साहित्य रचनात्मक साहित्य होता है पर अब  आलोचना को भी साहित्य की 
श्रेणी में रखा जा रहा है और रचनात्मक आलोचना की नयी श्रेणी का विकास किया जा रहा 
है । आलोचना जो मूलत: एक बौद्धिक काम है   जिस से आलोचनाशास्त्र का निर्माण और 
विकास होता है , उसे साहित्य के समकक्ष रख कर साहित्य की अवधारणा को कुण्ठित और 
दिग्भ़मित किया जा रहा है ।
   साहित्य ओर आलोचना का घनिष्ठ सम्बन्ध है ।मैं आलोचना और आलोचकों का कोई 
अवमूल्यन नहीं करना चाहता । उत्तम आलोचना उत्तम साहित्य को सामने लाती है ,जो बड़ा 
आवश्यक काम है । पर पक्षपातपूर्ण , एकांगी तथा घटिया आलोचना अच्छे साहित्य और बुरे 
या निम्न स्तरीय साहित्य की पहचान को बाधित करती है ।
  साहित्य की पहचान और उस का मूल्याँकन पहले आलोचना से हुआ करता था ,लेकिन अब 
साहित्य की पहचान साहित्य से और उस का मूल्याँकन स्वयम् साहित्यकारों द्वारा करने की 
आपातकालीन आवश्यकता पैदा हो गई है ।
-- डा सुधेश 


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