Friday, 1 March 2013

प़कृति और मैं

                      पौधा 

        मैं सड़क के बीच का पौधा 
         किस ने लगाया 
         किस अभागे समय 
         आने वालों जाने वालों को 
         बस देखता हूँ 
         जगत भी आवागमन का सिलसिला 
         कारों तिपहिया वाहनों ट्रकों 
         से निकलते ज़़हर में साँस लेते 
          मेरे पत्ते काले पड़ गए हैं 
          खिली दो चार कलियों ने 
          फूल बनने से किया इंकार 
           फिर कहाँ फूलों की हँसी 
          कहाँ मादक गन्ध 
          मेरी सुरभि का कोष 
            लूटा सभ्यता की दौड़ ने 
           जैसे दिन दहाड़े लुट गया 
           सड़क का आदमी 
           सड़क के बीचों बीच ।
मैं अगर खिलता 
फैले कार्बन को सोख 
आक्सीजन लुटाता 
पर्यावरण सौन्दर्य में 
कुछ वृद्धि करता 
पर मैं अभागा
सड़क के बीचोंबीच 
केवल मूक दर्शक 
बन गया हूँ 
जैसे सड़क का आदमी । 

           वसन्त का सपना 

सुना वसन्त आया 
मैं रहा शिशिर से लड़ता 
आँसू की गर्मी के बावजूद 
हड्डियों में जा बैठी ठण्डक 
कमर पर टँगा रहा निष्ठुर मौसम 
वसन्त में सूखे पत्तों का ढेर
आवारा घूम रहा 
आँखों में धूल झोंकती रही निष्ठुर पुरवा । 
       मेरी आँखों में फिर भी 
       वसन्त का सपना ।

--सुधेश 




             

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