कुछ नये मुक्तक
पाप के अभ्यस्त मुश्किल से बदलते हैं ,
पी कर हुए जो मस्त मुश्किल से सँभलते हैं ।
जिस प़़ाण का है मोह इतना प़ाणियों को
अन्त में वे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं । ।
ठोकरें खा पाँव रस्ते को बदलते हैं
बोझ ढोकर ही यहाँ कन्धे सँभलते हैं
प़़ाण को जो रखे फिरते हैं हथेली पर
प़़ाण उन के अन्त में हंस हंस निकलते हैं ।
इस जगत में कौन दिल की बात कहता है
चाश्नी में सत्य की वह झूठ कहता है
दुखों की बारिश यहाँ पर रोज़ होती है
जिस पर गुज़रती आपदा वही सहता है ।
मर मिटे जो काम करते वही भूखे हैं
धूप में जलते रहे जो वही सूखे हैं
पेट की जो भूख है सब को सताती है
पेट जिन के भरे धन के वही भूखे हैं ।
कुछ धन मुझे भी चाहिये किन्तु मेहनत का
ज़िन्दगी को चलाने की सिर्फ मोहलत का
कण मुझे मिल जाए ख़ुद को धन्य समझूँगा
दिल की मुहब्बत का इन्सानी मुरव्वत का ।
जो लिखा दिल से लिखा है
आँख भीगी तब लिखा है
सिर्फ लिंखने के लिए जो
नहीं कुछ ऐसा लिखा है ।
लिखता हूँ पर कौन पढ़ेगा
मेरे पथ पर कौन बढ़ेगा
सच कहने पर मुझे छोड़ कर
इस सूली पर कौन चढ़ेगा ।
-- सुधेश
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