Friday, 17 May 2013

कुछ और ग़ज़लें

       कुछ और ग़ज़लें 

          कहनी जो तुम से बात अकेले में
            मुझ से होगी वह बात न मेले में ।
यह लाखों का मौसम है सावन का 
कैसे  इस  को  तोलूं  मैं धेले  में  ? 
            दुनिया बाज़ार हुई सच है फिर भी 
             यह प्यार कहाँ बिकता है  ठेले में ? 
रक्तिम कपोल तेरे यह कहते हैं 
अंधरों ने छापी बात  अकेले में ।
            सब सुन लें कैसे ऐसी ग़ज़ल कहूँ 
            जग के गूँगे बहरों के मेले में  ।

दुख की बदली बिना कहे छा जाती है 
पर चन्दा की कोर चमक मुस्काती है । 
           सुधा वर्षिणी शुभ़ चाँदनी खिली हुई 
           क्यों वियोग ज्वाला सी मुझे जलाती है ।
ठूँठ नहीं खिल पाता सौ मधुमासों में 
मरघट के पेड़ों पर कोयल गाती है । 
            मेरे रोगों की तो कोई दवा नहीं 
             मन खिलता जब तेरी चिट्ठी आती है ।
तुम आये सारे दुखड़े काफ़ूर हुए 
जाने पर क्यों याद तुम्हारी आती है ।
            जन्म दिवस या मरण दिवस हो गांधी का 
             दुनिया बस छुट्टी की ख़ुशी मनाती है । 
जीवन नाम जागने सोने भर का है 
ज़िन्दगी जगाती बस मौत सुलाती है । 
            
--सुधेश



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