Sunday 15 September 2013

एक रोचक संस्मरण



एक रोचक संस्मरण 

सिंध से आ कर हमारा परिवार पहले नासिक जिले के एक कसबे सटाना में ठहरा फिर अपने बिछड़े हुए अपनों को खोज कर उल्हासनगर आ गया. वहां मैं सातवीं तक सिंधी स्कूलों में पढ़ा. पर आश्चर्य कि वहां मैं राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की हिंदी कक्षाओं में शाम को पढ़ने जाता. एक और मज़ेदार बात कि मेरे बड़े भाई जो दसवीं में थे, वे शाम को इन्हीं कक्षाओं में अध्यापक लग गए. मेरी बड़ी दीदी अंजना हिंदी की बहुत प्रखर विद्यार्थी. मैं सामान्य स्कूल में भी लगभग हर विषय में प्रथम तीन नंबरों पर आता सो परीक्षा का सबसे ज़्यादा इंतज़ार रहता. और मज़ेदार बात यह कि सिर्फ और सिर्फ इसीलिये मुझे प्रेमचंद की कहानी 'परीक्षा' से सबसे ज़्यादा लगाव था जो राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की 'परिचय कक्षा में थी. प्रेमचंद का नाम ही मुझे छठी कक्षा में शाम को हिंदी की कक्षाओं में इसी कहानी 'परीक्षा' से पता चला... और एक दिन क्या होता है कि मेरे नाना जो बहुत सख्त थे वे बोले कि तुम दोनों (अंजना और मैं) में से कोई भी हिंदी नहीं पढ़ेगा. दोनों की चवन्नी चवन्नी फीस बेकार खर्च जाती है. मैं दो दिन तो बहुत रोया. तीसरे दिन क्या किया कि शाम को घर से ही गायब हो गया. संकरे से बाजार में चलता गया और जा कर एक शिवाले में बैठ गया. जल्द ही तेज़ बारिश भी हुई. मेरी बड़ी दीदी अंजना छाता ले कर मुझे खोजने लगी. बाजार में ऐसे ही छाता ले कर आता हुआ कोई पड़ोसी दिखा उसे. पड़ोसी ने बताया कि तुम्हारा भाई प्रेम वहां शिवाले में बैठा है. बड़ी दीदी वहीं आ गई. देखा मेरी आँखें प्रार्थना में बंद भी हैं और आँखों से टप टप आंसू भी गिर रहे हैं. मेरे ठीक सामने घुटनों के बल बैठ उसने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा - 'ऐसी कौनसी ताकत है जो हमें हिंदी पढ़ने से रोके. हिंदी से हमें बहुत प्यार है न, और नानाजी थोड़ेई हमारा घर चला रहे हैं. माँ और पिताजी हमें ऐसे ही रोता छोड़ देंगे क्या. चल चल घर चल जल्दी से अब.

वह दिन मेरी समृति में अभी तक एक अविस्मरणीय दिन बन कर ठहरा हुआ है. एक ही छाते में भाई बहन बरसात में भीगते बचते घर आए. आज मैं सोचता हूँ, क्या मेरा, मेरी बड़ी दीदी का और बड़े भैया का हिंदी प्रेम किसी राष्ट्रीय नीति के तहत था? या किसी भाषाई राजनीति के कारण? या किसी संस्कृति के पिट्ठू ने सिखाया था? नहीं, हम तो हिंदी के दीवाने थे. अहिन्दी होते हुए भी हिंदी बहुत स्वाभाविक तरीके से हमारी रगों में बसी थी. पिता संस्कृत के विद्वान, हिंदी की क ख ग स्कूल से पहले ही उन्होंने हमें सिखाई, सो इस हिंदी-प्रेम को भला कौनसी ताकत रोक सकती थी?

--प़ेम चन्द़ सहजवाला 
( हिन्दू कॉलेज , दिल्ली ) 

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