Tuesday 3 December 2013

दो श्रेष्ठ गीत



कुछ समय पहले दिवंगत हुए श्रेष्ठ गीतकार शिव बहादुर सिंह भदौरिया
का एक उत्तम नव गीत और उत्तराखण्ड के वरिष्ठ कवि डा रूप चन्द़
शास्त्री मयंक का एक गीत यहाँ प़स्तुत किया जा रहा है ।
-- सुधेश



 पुरवा जो डोल गई
घटा घटा आँगन में जूड़े से खोल गई ।

बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ ।
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग बधइया फिर बोल गई ।

बरगा की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
बिरहा की तालों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालग तक ब्याहों का बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली ।
नीम तले चौरा पर
मीर की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली चर्चा रस घोल गई ।

खनक चुड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पर रंग फेरा मालिन की बातों ने
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है ।

नदिया से उमक उमक
मझली वह छमक छमक
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई ।

झूले के झूमक हैं शाखों के कामों में
शबनम की फिसलन केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है
सनई के फूलों की गोटा किनारी है ।
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाँहों में
धोबन भी पाटे पर हइया हू बोल गई ।

-- शिव बहादुर सिंह भदौरिया ( हाल में दिवंगत )
पंकज प़सून के सौजन्य से ।


"झंझावात बहुत फैले हैं"

सुख के बादल कभी न बरसे,
दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!

अनजाने से अपने लगते,
बेगाने से सपने लगते,
जिनको पाक-साफ समझा था,
उनके ही अन्तस् मैले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!

बन्धक आजादी खादी में,
संसद शामिल बर्बादी में,
बलिदानों की बलिवेदी पर,
लगते कहीं नही मेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले...।

--  रूप चन्द़ शास्त्री मयंक
( खटीमा , उत्तराखण्ड )
ब्लागमंच में प़काशित ७ अगस्त २०१३

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