Monday 30 December 2013

स्वामी प़भुपाद की जिजीविषा और उन के काम

स्वामी प़भुपाद की जिजीविषा और उन के काम

- स्वामी प्रभुपाद ने 69 वर्ष की उम्र में वह काम शुरू किया, जिसे लोग अपने युवा दिनों में करने का ख्वाब देखते हैं. इस उम्र में अमेरिका जाकर विश्वविख्यात हुए. 1965 में भारत छोड़ने से पहले उन्होंने तीन किताबें लिखी थीं. 70 से 82 की उम्र में यानी अगले 12 वर्षों में उन्होंने 60 से अधिक पुस्तकें लिखीं. भारत छोड़ने के पहले सिर्फ एक शिष्य को मंत्र दिया था, अगले 12 वर्षों में 4000 से अधिक शिष्यों को दीक्षित किया. कृष्ण भक्तों की विश्वव्यापी संस्था बनायी. -

पहली बार इस्कान (हरे कृष्ण हरे राम आंदोलन) को बंबई के दिनों (1977-1981) में जाना. टाइम्स आफ इंडिया के सहकर्मी साथियों ने बताया कि जुहू में इस्कान का भव्य मंदिर है. सुरुचिपूर्ण शुद्ध-शाकाहरी भोजन मिलता है. तभी विदेशी भक्तों को भजन गाते देखा-सुना. पर हमारी पीढ़ी वामपंथ, समाजवाद और जेपी आंदोलन के विचारों की आभा में बढ़ी थी. तब हमारे मन में हिप्पी आंदोलन को लेकर खराब धारणाएं थीं. बिना पढ़े-जाने. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी छात्र आंदोलन से जुड़े लोग, हिप्पी आंदोलन को हेय दृष्टि से देखते. व्यंग्य के तौर पर. उनके वर्जनाहीन जीवन, उन्मुक्त संबंध, धारा के विरुद्ध जीवन शैली (नियमित नहाने-खाने, दांत साफ करने वगैरह में विश्वास न होना, महीनों एक ही वस्त्र पहने रहना वगैरह) चर्चा के विषय थे. इस तरह इस आंदोलन के प्रति एक पूर्वग्रह था. यह टूटा, पिछले कुछेक वर्षों में. हिप्पी आंदोलन के उद्गम को जान कर.

यह एक तरह से अपने समय की यथास्थिति के खिलाफ युवाओं का विद्रोह था. परंपरागत जीवन शैली, व्यवस्थागत पारिवारिक जीवन, बनी-बनायी लीक पर चलनेवाली जिंदगी के खिलाफ, पश्चिम के युवाओं की बगावत. इन युवाओं ने नशे में ही मुक्ति देखी. उन्हीं दिनों महेश योगी के साथ हिप्पी आंदोलन और बीटल संगीत के अनेक प्रवर्तक भारत आये. यह भी चर्चा का विषय रहा. यह पीढ़ी जीवन का अर्थ ढूंढ़ना चाहती थी. होने (बीइंग) का मर्म जानना चाहती थी. ये सवाल इतने आसान नहीं हैं. इसलिए अधिसंख्य हिप्पी आंदोलन के प्रवर्तकों ने हशीश, अफीम, एलएसडी, चरस, गांजा, भांग वगैरह में मुक्ति खोजी. खुले सेक्स में परमगति की बात की. इसी बीच विदेश घूमना हुआ.

1994 से अब तक दुनिया के मुख्य हिस्सों को देखने का अवसर मिला. इस्कान के समर्पित विदेशी युवाओं को देखा, जो धुन, लगन और समर्पण से लंदन, यूरोप, अमेरिका वगैरह में कीर्तन करते. भले ही दो आदमी हों, पर वे अपनी अलग वेशभूषा में सिर मुड़ाये, गेरुआ या पीला भारतीय संन्यासी वस्त्र पहने, कीतर्न की धुन में डूबे रहते. पुस्तक बेचते या कीर्तन गाते बढ़ते जाते. धारा के विरुद्ध अलग चलने के इस साहस ने आकर्षित किया. फिर इस आंदोलन को समझा, स्वामी राधानाथ जी की पुस्तक द जर्नी होम : आटोबायोग्राफी ऑफ एन अमेरिकन स्वामी  से. पर यह विषयांतर है.

स्वामी राधानाथ जी की पुस्तक से प्रेरित होकर इस आंदोलन के प्रवर्तक श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को समझने की कोशिश की. उनका आध्यात्मिक योगदान भूल जायें, तब भी वह विलक्षण इंसान हैं. इस्कान आंदोलन से आगे उनके महत्व को पहचाना नहीं गया. किन परिस्थितियों में मामूली परिवार में जन्मे एक साधारण इंसान ने अकेले वह चमत्कार किया, जिसके समान दूसरा उदाहरण शायद ही मिले. वह बाद में श्रील प्रभुपाद कहलाये.

01.09.1896 को कोलकाता में जन्मे. उनका नाम था, अभय चरण डे. उनके जीवन संघर्ष की कथा हरेक भारतीय युवा को पढ़नी चाहिए. उनके विचार, धर्म जानने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि एक इंसान अपने संकल्प, पौरुष, कर्म, प्रतिबद्धता से कैसे चमत्कार कर सकता है? असंभव से संभव? पिछले सौ वर्षों में जो मुट्ठी भर भारतीय हुए, जो आनेवाली शताब्दियों तक भारतीय समाज को प्रेरित करते रहेंगे, उनमें से श्रील प्रभुपाद भी हैं. पिता कपड़े के व्यापारी थे. वैष्णव संस्कार के. मां भी धार्मिक थीं. अभय डे से कक्षा में एक वर्ष आगे थे, नेताजी सुभाष चंद्र बोस. अभय डे भी राष्ट्रवादी विचारों के समर्थक थे, पर गांधी में उनकी रुचि अधिक थी. गांधी की तरह वह भी भगवद्गीता रखने लगे. गांधी गीता को अपनी मां मानते थे. नशा, मांसाहार, मैथुन वगैरह से वर्जित जीवन शैली. अभय डे को तभी लगा कि गांधी की आध्यात्मिकता को उन्हें कर्म क्षेत्र में उतारना है.

1920 में कॉलेज के चौथे वर्ष की पढ़ाई पूरी की. परीक्षा पास की, लेकिन डिग्री लेने से मना कर दिया. क्योंकि तब गांधी जी ने छात्रों से पढ़ाई छोड़ने का आह्वान किया था. अभय डे के पिता इस कदम से असमहत थे. बाद में अभय को एक प्रयोगशाला में मैनेजर के रूप में नौकरी मिली. पिता ने उनकी शादी भी कर दी. व्यापार करने के मकसद से वह सपरिवार इलाहाबाद चले गये. इसके पहले कोलकाता रहते हुए, 1922 में उनकी एक संत, सरस्वती ठाकुर से पहली बार भेंट हुई. अभय डे अपने एक मित्र के साथ गये थे. अभय ने सफेद खादी पहनी थी. संत ने कहा, तुम पढ़े-लिखे युवा हो. भगवान चैतन्य के संदेश को पूरी दुनिया में क्यों नहीं फैलाते? गांधी से प्रभावित अभय ने उसी भाव में कहा, ‘आपके चैतन्य का संदेश कौन सुनेगा? हम पराधीन देश हैं. प्रथम, भारत को स्वतंत्र होना चाहिए. ब्रिटिश शासन में रहते हुए, हम भारतीय संस्कृति का किस तरह प्रसार कर सकते हैं?’ (सौजन्य- प्रभुपाद, भारत के आध्यात्मिक राजदूत, लेखक- सत्यस्वरूप दास गोस्वामी, प्रकाशक- भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट) स्वामी संत सरस्वती ठाकुर ने कहा, सरकारें अस्थायी हैं. उनसे बदलाव संभव नहीं. शाश्वत तो आत्मा है, कृष्ण भावना है. कोई राजनीतिक प्रणाली मनुष्य की मदद नहीं कर सकती.

आजादी की लड़ाई से निकले अनेक बड़े नेताओं के मन में भी आगे चल कर ऐसा ही द्वंद्व खड़ा हुआ. हर तरह की राजनीतिक प्रणाली, व्यवस्था या विचार मनुष्य ने देख लिया, पर बदलाव क्यों नहीं हो रहा है? मनुष्य और समाज बदल क्यों नहीं रहे हैं? अभय के मन में भी यह संशय उठा. उन्होंने इस आंदोलन से जुड़ने का फैसला किया.

इलाहाबाद में 1932 में स्वामी सरस्वती के शिष्य बने. पर लगा पारिवारिक जिम्मेदारियों और कृष्ण भावना के प्रचार-प्रसार में आपसी मेल नहीं है. दवा विक्रेता के रूप में उनकी यात्रा काफी होती थी. बीच-बीच में अपने गुरु से जाकर मिलते थे. 1935 में वह वृंदावन में अपने गुरु से मिले. स्वामी सरस्वती ने उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) स्थित गौड़ीय मठ के विवाद के बारे में बताया, पर साथ ही इच्छा व्यक्त की कि कृष्ण भावना के प्रसार के लिए पुस्तकें छपनीं चाहिए. कहा, धन हो तो तुम यह काम करना.

1936 में उनके गुरु स्वामी जी नहीं रहे. उनके न रहने के बाद अभय डे को अपने गुरु का लिखा पत्र मिला. इसमें उन्होंने जो लिखा, उसका आशय था कि कृष्ण भगवान के विचारों और तर्को को अंग्रेजी में दुनिया को बताने के लिए सबसे अच्छे प्रचारक तुम हो सकते हो. फिर तो धुन के रूप में अभय डे ने अपने गुरु की बात मानी. उन्होंने बैक टू गॉडहेड पत्रिका शुरू की. पास में न धन था, न भक्त, न कोई सहारा. पर उन्हें अपने गुरु और भगवान कृष्ण पर भरोसा था. इस पत्रिका को छापना और चलाये रखना अद्भुत प्रेरक प्रसंग है.

जैसे-जैसे वह लिखने और प्रचार कार्य में लगे. व्यापार बैठता गया. कर्ज में परिवार डूबा. परिवार बिखर गया. अंत में उन्होंने घर छोड़ दिया. व्यापार भी. झांसी में जहां पर काम शुरू किया था, 1950 में वह जगह भी छोड़नी पड़ी. वह वस्तुत: सड़क पर थे. अपना कपड़ा खरीदने के लिए धन न था. न रहने की जगह. उनके पास दिल्ली की कड़ाकेदार सर्दी से बचने के लिए कपड़े नहीं थे. अपनी पत्रिका का प्रूफ पढ़ने पैदल प्रेस जाते. एक बार प्रकाशक ने पूछा, इतने अभाव में आप क्यों यह पत्रिका चलाना चाहते हैं? उनका जवाब था, यह मेरे जीवन का लक्ष्य है. प्रेस से पत्रिका लेकर पैदल घूम-घूम कर बेचते. चाय की दुकान पर बैठ जाते. चाय पीनेवालों को प्रति खरीदने के लिए कहते. अनेक अच्छे और कटु अनुभव हुए.

अपने तिक्त अनुभवों के बारे में उन्होंने एक लेख लिखा, ‘नो टाइम, ए क्रॉनिक डिजीज ऑफ द कॉमन मैन’ (समय नहीं है, आम आदमी का एक पुराना रोग). लोग उन्हें कटु जवाब देते, पर वह विचलित नहीं हुए. 1950 में 54 वर्ष की उम्र में वह वानप्रस्थ में गये. दिल्ली में रहना मुश्किल हुआ. एक बार दिल्ली की लू में पत्रिका बेचते-बेचते सड़क पर गिर पड़े. एक व्यक्ति ने कार से डॉक्टर के पास पहुंचाया. एक बार गाय ने सींग मार दी, तो सड़क किनारे पड़े रहे. उन्हें कभी-कभी लगता, समृद्ध घर-परिवार सब छोड़ा, कृष्ण भावनामृत मिशन के लिए. पर कुछ हो नहीं रहा. बाद में उन्होंने लिखा, उस समय मैं समझ नहीं सका, लेकिन अब मुझे अनुभव होता है कि वे सारी कठिनाइयां मेरी संपदा थीं. यह सब कृष्ण की कृपा थी.

दिल्ली में दिक्कत हुई, तो वृंदावन चले गये. बंसी गोपाल जी मंदिर में एक सस्ता, साधारण कमरा लिया. वहीं बैठ कर जमुना को ताकते. उसकी हवा का आनंद लेते. कृष्ण को याद करते. वह कृष्णधाम में थे. कृष्ण के दास थे. पर उनका सपना दूर था. खुद पर कुछ खर्च नहीं था, पर पास में एक धेला नहीं. बैक टू गॉडहेड  पत्रिका के बारह अंक निकलने के बाद पैसा खत्म हो गया. प्रकाशक ने मना भी कर दिया. इसी दौरान उन्होंने बहुत मार्मिक कविता लिखी.

वृंदावन धाम में बैठा हूं मैं अकेला,

हो रही हैं, इस मुद्रा में अनुभूतियां अनेक.

हैं मेरी स्त्री, पुत्र-पुत्रियां, नाती सभी,

किंतु धन नहीं, अत: है सारा वैभव निष्फल.

भौतिक प्रकृति का नग्न रूप दिखाया श्री कृष्ण ने मुझे,

उनकी कृपा से हुआ मैं आज वितृष्ण.

यस्याहं अनुगृहामि हरिष्ये तद्धनं शनै:

(करता हूं मैं अनुग्रह जिसपर, हरता हूं धन क्रमश: उसका)

कैसे समझूं मैं कृपामय की इस कृपा को?

जान कर धनहीन, छोड़ दिया सबने मुझे,

पत्नी, कुटुंब, मित्रजन, और भाई सभी ने.

है दुख, किंतु आती है हंसी, बैठा अकेला हंसता हूं.

इस माया संसार में, प्रेम करूं मैं किससे?

गए कहां मेरे स्नेही माता-पिता?

कहां गए बुजुर्ग, थे जो मेरे स्वजन,

देगा मुझे कौन खबर उनकी, बताओ तो कौन?

रह गयी है, इस पारिवारिक जीवन के नामों की मात्र एक सूची.

दरअसल, वह एकाकी हो गये थे. न धन बचा था, न पुराना रिश्ता. उम्र भी बढ़ रही थी. सबकुछ, पूरा संसार खाली और सूना था. तब एक इंसान ने अपने कर्मों व हौसले से सफलता का नया अध्याय लिखा.

उन्हीं दिनों एक रात उन्होंने सपना देखा, जिसमें उनके गुरु सामने खड़े थे. उन्हें पीछे चलने के लिए पुकार रहे थे. इसका संकेत उन्होंने समझा कि अब संन्यास ग्रहण करना है. 1959 में संन्यास लिया और कृष्ण भावनामृत पुस्तकें लिखना तय किया. फिर दिल्ली पहुंचे. किसी ने एक मंदिर में मुफ्त कमरा दिया. नये उत्साह के साथ उन्होंने बैक टू गॉडहेड पत्रिका शुरू की. आज यह पत्रिका उनके शिष्यों द्वारा चलायी जा रही है और तीस से अधिक भाषाओं में छप रही है.

साथ ही श्रीमद्भागवत का अनुवाद कर इसे साठ खंडों में लिखने का विचार किया. सोचा कि पांच से सात वर्ष स्वस्थ रहा, तो यह सब कर लूंगा. इसके बाद इन पुस्तकों को विदेश में प्रचार करने व बेचने की योजना थी. दिन-रात वह फर्श पर बैठ कर टाइप करते. भोजन-नींद भूल कर. उनका यकीन था कि श्रीमद्भागवत से गुमराह सभ्यता में एक नयी क्रांति आयेगी. लेखन के बाद प्रकाशन की चुनौती अलग थी. कोई प्रकाशक नहीं मिला. कहीं से व्यवस्था की, तो खुद प्रूफ पढ़ना, संशोधन करना, पैदल आना-जाना किया. प्रेस पहुंचने का रास्ता कठिन और जटिल था.

इस तरह अनेक कष्टों के बाद उन्होंने एक खंड श्रीमद्भागवत छापा. फिर दूसरे खंड पर काम करने लगे. किसी तरह दो वर्ष में तीन खंड छप सके. अब अमेरिका जाने की धुन थी. पासपोर्ट, वीसा, पी-फार्म और एक स्पांसर (जामिन या जमानतदार) चाहिए था. किसी तरह यह सब भी किया. पानी के जहाज के टिकट की कोशिश की. तब सिंधिया जहाज की मालकिन ने अपने सहयोगी के माध्यम से मना किया कि स्वामीजी वृद्ध हैं. वहां जायेंगे, तो मृत्यु भी हो सकती है. तब स्वामीजी सिंधिया स्टीम-शिप लाइन की अध्यक्षा सुमति मोरारजी से खुद मिले. किसी तरह उनको राजी किया. साथ में उस पंपलेट की पांच सौ प्रतियां छपवा लीं, जिसमें भगवान चैतन्य के लिखित आठोक थे और श्रीमद्भागवत का एक विज्ञापन.

इस तरह मालवाहक ‘जलदूत’ जहाज से स्वामी जी कोलकाता से अमेरिका रवाना हुए. कुछ सब्जी, फल और धन लेकर. स्वामीजी जहाज पकड़ने मुंबई से कोलकाता आये थे. लेकिन अब उस कोलकाता में उनका कोई अपना या स्वजन नहीं था. किसी तरह कहीं ठहरे. एक छाता, एक सूटकेस, कुछ धन और उबले आलू लेकर वह अपने बचपन के शहर से कोलकाता बंदरगाह के लिए निकले. साथ में पुस्तकों से भरे कई बक्से थे. यही उनकी पूंजी थी. उम्र थी 69 वर्ष. उनका टिकट नि:शुल्क था. 35 दिनों के बाद स्वामीजी बोस्टन पहुंचे. उन्हें दो दिनों में दो बार दिल के दौरे पड़े. समुद्री जहाज पर. उनके पास भारतीय मुद्रा में सिर्फ 40 रुपये थे. कहीं कोई परिचित नहीं. यही पूंजी, परिचय और संबंध लेकर प्रभुपाद जी 1959 में एक मालवाहक जहाज से अमेरिका पहुंचे. 1966 में अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना संघ (इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कांससनेस यानी इस्कान) की स्थापना की.

दरअसल, उन्होंने 69 वर्ष की उम्र में वह काम शुरू किया, जिसे लोग अपने युवा दिनों में करने का ख्वाब देखते हैं. चमत्कारिक ढंग से ऐसी उपलब्धियां हासिल कीं, जो कई जन्म लेने पर भी शायद कोई न कर सके. 69 वर्ष की उम्र में अमेरिका जाकर ही वह विश्वविख्यात हुए. 1965 में भारत छोड़ने से पहले उन्होंने तीन किताबें लिखी थीं. 70 से 82 की उम्र में यानी अगले 12 वर्षों में उन्होंने 60 से अधिक पुस्तकें लिखीं. भारत छोड़ने के पहले सिर्फ एक शिष्य को मंत्र दिया था, अगले 12 वर्षों में 4000 से अधिक शिष्यों को दीक्षित किया. कृष्ण भक्तों की विश्वव्यापी संस्था बनायी.

रूस में भी चमत्कारिक कामयाबी मिली. दुनिया के एक से एक बड़े लोग इनके संगठन से जुड़े. 1965 में पानी के जहाज से भारत से बाहर जाने के पहले (यानी 69 वर्ष की उम्र में) वह कभी भारत के बाहर नहीं गये थे. अगले 12 वर्षों में उन्होंने विश्व के कई चक्कर लगाये. सैकड़ों मंदिर स्थापित किये. बारह वर्षो में छहों महाद्वीपों की चौदह परिक्रमाएं कीं.

श्रील प्रभुपाद की रचनाएं 50 से अधिक भाषाओं में अनूदित हैं. 1972 में केवल श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए बना भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट, भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक है. एक अकेले व्यक्ति ने आध्यात्मिक आंदोलन का सूत्रपात किया. जिसकी हवा पूरी दुनिया में बहने लगी. अमेरिका में उनके आरंभिक दिनों के संघर्ष अद्भुत और भारत से भी कठिन थे. पग-पग पर चुनौतियां. अमेरिका के पश्चिम वर्जीनिया में दो हजार एकड़ में नव वृंदावन बसाया. वहां गुरुकुल बनाया. आज दुनिया में इस संघ के तीन सौ से भी अधिक मंदिर, कृषि क्षेत्र, गुरुकुल व विशेष योजनाएं हैं. करोड़ों भक्त हैं.

हिप्पी आंदोलन के श्रेष्ठ व सिरमौर लोगों से सीधे संवाद किया. लाखों सिर मुड़ाये भक्तों का नया संसार बनाया. उन्होंने पश्चिम को कहा कि तुम्हारे पास यौवन, यश, धन, स्वास्थ्य सब कुछ है, पर यही पर्याप्त नहीं है. उन्होंने एलएसडी और अन्य मादक द्रव्यों के खिलाफ आह्वान किया. हिप्पी आंदोलन व बीटल्स के सूत्रपात करनेवाले जार्ज हैरिसन, रिंगो स्टार, जान लेनन, पाल मकैर्टने, पाल मैकार्थी और उनकी पत्नी लिंडा वगैरह उनसे जुड़े. इनमें से कुछ पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ गायक थे.

इन्होंने स्वामी जी के लिए गीत रिकार्ड कराये. स्वामी जी ने यौन उन्मुक्तता और नशे के खिलाफ अभियान चलाया. उन्हीं के बीच जाकर उन्हीं की संस्कृति (नशा, उन्मुक्त यौन संबंध वगैरह) के खिलाफ बात की. बुराइयों के बीच बुराई की बात. रथयात्रा की परंपरा, जुलूस, कीर्तन वगैरह की शुरुआत भी पश्चिम में की. उन्होंने कहा कि पूर्व, पश्चिम से मिल रहा है.

स्वामीजी के जीवन के काम बड़े और व्यापक रहे. उनको एक जगह (लेख में) समेटना मुश्किल है. किसी काम के प्रति सच्चा समर्पण हो, यात्रा कितनी भी कठिन और अकेली क्यों न हो, सफलता मिलती ही है. प्रभुपाद का जीवन इसका उदाहरण है. किसी मंजिल के लिए संघर्षरत भारतीय युवा पीढ़ी स्वामी प्रभुपाद के जीवन से बहुत कुछ सीख सकती है.

-- हरिवंश
( प़भात ख़बर से साभार )
१८ अगस्त २०१३ को प़काशित ।

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