जयपुर में तथाकथित साहित्योत्सव , कुछ स्फुट विचार
आज २४ जनवरी के समाचार पत्र हिन्दुस्तान टाइम्स में जयपुर में आयोजित साहित्योत्सव की
( जिसे अंग्रेज़ी वाले लिट फ़ेस्ट कहते हैं , चाहे लिट का अर्थ कोई लिटर यानी कूड़ा निकाले)
जो रपटें छपी हैं , उन्हें पढ़ कर मुझे लगा कि यह सिनेमा , राजनीति , पत्रकारिता से जुड़े ,
यहाँ तक कि पुराने राजनयिकों और कभी आतंक वादी रहे पाकिस्तानी पत्र कार जैसे
ग़ैर साहित्यिक जमूरों की जमूरी है , जिस में लेखक के नाम पर अंग्रेज़ी के ब्रिटिश लेखक
एनोटेल ल्युवेन और एक गुमनाम हिन्दुस्तानी आश्विन संघी की भागीदारी दिखी । बहस
भी प्राय: ग़ैर साहित्यिक विषयों पर हुई जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता की
ज़रूरत । मैं साहित्य से राजनीति के सम्बन्ध को ख़ारिज नहीं करता , पर तात्कालिक
राजनीतिक प्रश्न पत्रकारिता के प्रश्न अधिक हैं , साहित्य के कम । जिन का हिन्दी या
किसी भाषा के साहित्य से कोई लेनादेना नहीं , वे इस उत्सव की शोभा बढ़ा रहे हैं या
अपनी शक्ल चमका रहे हैं , यह बात मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ ।
इस उत्सव से हिन्दी के साहित्यकार प्राय: ग़ायब हैं या आमन्त्रित नहीं किये गये ।
हाँ अशोक वाजपेयी जी इस में हैं या होंगे शायद इस से हिन्दी वालों का रोना कम हो जाये
या उन के आँसू पुँछ जाएँ । वाजपेयी जी की भागीदारी का स्वागत करता हूँ पर मुझे
शक है कि वे अंग्रेज़ी वालों के बीच हिन्दी में बोलेंगे । वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे है
फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोल सकते है , जबकि अधिकांश हिन्दी लेखक अंग्रेज़ी में तुतलाते
हुए दिखते हैं । पर डा नगेन्द्र और डा राम विलास शर्मा को मैं ने कई पार अंग्रेज़ी में
धारा प्रवाह बोलते सुना है।
पश्चिमी नंगापन लोकप्रिय होते जाने के कारण बालाएँ ही आजकल मिनी कपड़े
नहीं पहनती बल्कि लिटरेरी फ़ेस्टीवल का भद्दा मिनीरूप लिट फ़ेस्ट भी मुझे अटपटा
लगा । न जाने क्यों लिट मुझे लिटर की याद दिलाता है । मैं सोचने लगता हूँ कि यह
उत्सव कहीं साहित्य का कूड़ा उत्सव बन कर न रह जाए
आज फेसबुक में श्री नन्द भारद्वाज की टिप्पणी से मुझे एक सूचना पढ़ने को मिली कि
जयपुर के साहित्योत्सव में कुछ राजस्थानी रचना कारों ने राजस्थानी साहित्य और कला
के बारे में विचार विमर्श किया । कुछ रचनाकारों के चित्र भी देखने को मिले पर किस ने
क्या कहा यह नहीं बताया गया । जयपुर के सम्मेलन में राजस्थानी की चर्चा स्वाभाविक
है । पर राजस्थानी को संविधान की आठवीं सूची में स्थान देने की माँग , जो बार बार
अनेक मंचों और संचार माध्यमों पर उठाई जाती रही है , इस अवसर पर नहीं उठाई गई ।
यह एक सकारात्मक बात है । जिस राजस्थानी की वकालत अनेक राजस्थानी करते रहे
हैं उस से राजस्थान की कई बोलियों की उपेक्षा होती है । इस सम्मेलन को बोलियों
और उपभाषाओं और भाषाओं के बीच विभेद पैदा करने के लिए इस्तेमाल नहीं होना
चाहिये । यह एक संयुक्त मंच है जो भारतीय भाषाओं के बीच मुख्य रूप से और देशी विदेशी
भाषाओं के बीच गौण रूप से एक पुल बनना चाहिये । इसे केवल अंग्रेज़ी का मंच बनाना
भारतीय भाषाओं की क़ीमत पर ही हो सकता है ।
आज २५ जनवरी के हिन्दुस्तान टाइम्स में सलिल त्रिपाठी के अंग्रेज़ी उपन्यास The colonel who
won't repent के सन्दर्भ में एक पत्रकार ने त्रिपाठी के कथा नायक सईद फ़ारूख रहमान
की बात उठाई जिस ने बंगला देश के नेता मुजीबुर्रहमान की हत्या की थी । उस अपराध
के कारण बाद में उस पर मुक़द्दमा चला और अदालत के हुक्म से उसे फाँसी की सजा दे
दी गई थी । सलिल त्रिपाठी एक पत्रकार के नाते ढाका गये तो उन की भेंट शेख़ मुजीबुर्रहमान
के हत्यारे उस कर्नल फ़ारूख रहमान से हुई जो उस समय ढाका की पाश बस्ती में शान से
रह रहा था । सलिल ने हत्यारे से पूछा कि बांग्लादेश के संस्थापक की हत्या से क्या उसे
कोई पछतावा है , तो उस का जवाब था कि वह उस घटना पर गर्व करता है ।
इसी क़ातिल कर्नल को त्रिपाठी ने अपने अंग्रेज़ी उपन्यास का नायक बनाया । बंगला देश के
मुक्ति संग्राम पर हिन्दी में अनेक कविताएँ लिखी गईं । मैं ने भी तब उस पर एक कविता लिखी
थी । सलिल त्रिपाठी से लिया गया अभिषेक साहा का इन्टरव्यू आज के ऊपर के अख्बार में
छपा है जो बड़ा रोचक है । इसे मैं जयपुर के साहित्योत्सव की एक उपलब्धि मानता हूँ ।
आज बी एस नायपाल ( विद्या सागर नायपाल ) के भाषण की रपट भी पढ़ने को मिली ।
उन का पहला उपन्यास An area of darkness ( १९६४ में प्रकाशित ) उन की पहली
भारत यात्रा के अनुभवों का परिणाम था । उन्हों ने कहा कि इस में उन्हों ने भारत की ओर
संकेत नहीं किया है बल्कि अपने मूल भारतीय परिवार के अंधेरे को लक्षित किया है ।
नायपाल की अन्य बातें मौलिक और रोचक है ।
इस उत्सव में अभिनेता और लेखक गिरीश कर्नाड द्वारा एक कांग्रेसी नेता सलमान ख़ुर्शीद की
पुस्तक का विमोचन कराया गया । मान लीजिये कि ख़ुर्शीद जी को इस उत्सव से लेखक
होने का प्रमाण पत्र मिल गया । यह जुगाड़ू लोगो की पहुँच का नतीजा है । ऐसे अनेक
जुगाड़ू ग़ैर लेखकों की उपस्थिति इस मेले की शोभा में चार चाँद नहीं एक दो तारे तो लगा ही
देती है । आज की एक उपलब्धि पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम की उपस्थिति
है , जो केवल वैज्ञानिक नहीं तमिल के कवि भी हैं , जिन की कविताओं के अनुवाद
हिन्दी में छप चुके हैं । श्रोताओं और दर्शकों ने उनका ज़ोरदार स्वागत किया जो वाजिब था ।
उन के वे व्यक्त विचार अख्बार ने नहीं छापे ।
रविवार २५ जनवरी २०१५ जयपुर के साहित्योत्सव का अन्तिम दिन था । मैं तो जयपुर नहीं
गया , क्योकि मुझे न तो बुलाया गया था ( क्योंकि मैं कोई सेलिब्रिटी नहीं हूँ , सामान्य
गुमनाम कवि हूँ ) और न मैं अपनी बीमारी के कारण वहाँ जाने की दशा में था , पर समाचार
पत्र में जो रिपोर्टें पढ़ी उन के आधार पर मैं ने अपनी प्रतिक्रिया लिखने की कोशिश की ।
यह कोई मूल्याँकन नही है । बस मेरे निजी विचार हैं , जो पाठकों के सामने रख रहा हूँ।
आज के अख्बार में अन्तिम सत्र की जो रपट पढ़ी , उसमें बृटेन के अंग्रेज़ी उपन्यासकार और
नाटक कार हनीफ़ कुरैशी की किसी पत्रकार से बातचीत बड़ी रोचक लगी । मंजुला नारायण ने
क़ुरैशी से पूछा कि इंग्लैण्ड में मुसलमान के रूप में रहते हुए आप को कोई कठिनाई तो नहीं?
क़ुरैशी का दो टूक उत्तर उन के ही शब्दों में देखिये --Since the attacks , particularly
In Paris , it's become really hard to be Muslim . People hate all Muslims
now. Every Muslim is ( viewed as ) potential terrorist . These Muslim
Terrorists have made life really difficult for all minorities . ( The Hindustan
Times , dated 26 th January 2015 , page 10 )
हनीफ़ क़ुरैशी की यह वेदना बहुत से मुसलमान बुद्धिजीवियों और सामान्य मुसलमानों की
वेदना है , जिसे ईमानदारी और बेबाकी के साथ उन्होंने प्रकट कर दिया । इस स्पष्टवादिता
के लिए मैं हनीफ़ क़ुरैशी की प्रशंसा करता हूँ । यह भी उक्त उत्सव की एक उपलब्धि है ।
अन्य गौण बातें न उठा कर मैं इस सत्र में दिये गये संस्कृत के पूर्व प्रोफ़ेसर और अनेक
संस्कृत रचनाओं के रचयिता डा सत्यव्रत शास्त्री जी के भाषण का उल्लेख करना चाहता हूँ
जिस में उन्होंने साफ़ कहा कि यह एक झूठ है कि संस्कृत एक मृत भाषा है और कभी बोली
नहीं जाती थी और यह भी ग़लत है कि वह एक बनावटी भाषा है जिसे कुछ विद्वानों ने अपने
वर्चस्व की स्थापना के लिए गढ़ा था । यह ज्ञान और विद्वानों की भाषा रही और अब भी उस में
ज्ञान की विविध शाखाओं का साहित्य है , पर वह केवल साहित्य तक सीमित नही रही ,
बल्कि वह भारत के अनेक क्षेत्रों में बोली भी जाती थी । उन का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि
अनेक ईसाइयों और मुसलमानों ने संस्कृत के विकास में योगदान दिया था । उन का यह भी
विचार है कि कम से कम एक हज़ार वर्षों तक संस्कृत केवल भाषा के नाम से जानी जाती थी
और बोली जाती थी । भाषा का ही तद्भव रूप भाखा है , जो देशी भाषा के लिए प्रयुक्त होता
था ।
यों तो फ़िल्मी कलाकार सोनम ने भी अपनी पोशाक और चमक का जलवा दिखाया और
जासूसी काल्पनिक नायक जेम्स बांड की तर्ज़ पर लिखे किसी अंग्रेज़ी उपन्यास के लेखक ने अपने
उपन्यास पर अपने विचार प्रकट किये , पर मुझे अधिक उल्लेखनीय शाजिया इल्मी की सुहैल
सेठ से हुई नौंकझौंक लगी । सेठ ने शाजिया को अवसरवादी बताया जो बेजेपी में शामिल
होगई । शाजिया भले नाम की इल्मी हों और साहित्य से उन का कोई लेना देना नहीं हो पर
उन्होंने सेठ को मुँहतोड़ जवाब दिये ।
तो मतलब यह कि जयपुर का यह साहित्योत्सव तरह तरह के साहित्यिक और ग़ैर साहित्यिक
स्त्री पुरुषों का उत्सव कम मेला अधिक था । मेले का भी अपना महत्त्त्व है , जिस से मनोरंजन
भी होता है और जिसमें अपरिचित परिचित हो जाते हैं और कभी बिछड़े मीत भी मिल जाते हैं ।
मेले की सांस्कृतिक महिमा भी है । इस मेले में संस्कृति और अपसंस्कृति का अच्छा घालमेल
देखा गया । अंग्रेज़ी भाषा और लेखकों का वर्चस्व रहा और उन की पुस्तकों को प्रचारित
होने के खूब अवसर मिले । अनेक हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लेखक आह भर कर रह गये
कि काश हम भी वहाँ होते ।
-- डा सुधेश
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १०
दिल्ली ११००७५
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