धरातल
छेनी छीलना चाहती है....
धरातल को मेरे ...
बड़ा सख्त है ..
उधड़ता ही नहीं ...
हथोड़ी की चोट जो पहले सख्त थी ..
अब नरम हो रही है ...
शायद कुछ तो कटा ...
दंभ की पर्त ...
जो समय के साथ ..
बाहरी आवरण पे जम गयी थी ...
छेनी के विद्रोह से
असल चमड़ी तक जा ही पहुंची ...
जहाँ नग्न वजूद ..
अबोध सा ...
धूल के कणों से सना ..
मेरे ही समक्ष वहीं उसी ...
धरातल पे खड़ा ।
विनय मेहता
देखो विरह में ..
आँखों के कोर पे..
उग आये है....
फिर से कर्कश मौसमी पत्ते ...
तुम कब आओगे ..
इन्हे हटाने ..
व्यथित करते है ..
नहीं देखने देते ...
वह पथ ..
जिस पे चल के ..
तुम गये थे ..
मुझसे दूर ..
एक दिन वापिस ..
लौटने का वादा ..
करके ।
... विनय महता
( दिल्ली )
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