Saturday, 4 July 2015

शैलेन्द्र त्रिपाठी की कविताएँ

          कवि , आलोचक , सम्पादक और शान्ति निकेतन में हिन्दी के प्रोफ़ेसर 
          डा शैलेन्द्र त्रिपाठी हिन्दी जगत में एक जाना माना नाम है । उन के सम्पादन 
          में सरयूधारा त्रैमासिक कई वर्षों तक प्रकाशित होती रही । उस के प्रेमचन्द 
         विशेषांक , कहानी विशेषांक , कविता विशेषांक और अन्य अंकों को काफी 
         सराहना मिली । उन के कई काव्यसंग्रह , कई आलोचनात्मक ग्रन्थ प्रकाशित 
         हो चुके हैं । यहाँ प्रस्तुत हैं त्रिपाठी जी की कुछ कविताएँ । 

       शैलेन्द्र त्रिपाठी की कविताएँ 

                सम्भावना कहाँ शेष होती है 

कबूतरों के लिए 
पाँचवें मंज़िल की
छत पर रखा है पानी
बच्चे सुबह दाना/डाल आते हैं 
बिना नागा ,
फ्लैटनुमा इमारत की पाँचवीं मंजिल
कम से कम बीस परिवार
सबके अपने-अपने जल पात्र
सबके अपने-अपने बच्चे
सबका अपना-अपना दाना
पर कबूतर तो सबके हैं
इस छत पर नहीं 
तो उस छत पर सही
सम्भावना कहाँ शेष
होती है-।
-- कवि  के भतीजे अमन त्रिपाठी के सौजन्य से ।


          मुहावरा

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता
तो क्या कोशिश भी नहीं करेगा ? 
इकाई की चेतना से इन्कार
मुहावरे का यही मतलब तो है । 
पर मेरा कहना है
भले मानुषों
प्रायः परिवर्तन अकेले चलने वालों
ने ही किये हैं 
अकेले चले
पर अकेले के लिये नहीं चले..
तो क्या चना अकेले के लिये
भाड़ फोड़ना चाहता है - ?
कैसा मुहावरा है यह
बदल डालो 
अकेले चलो
पर
अकेले के लिये नहीं ।


       पतंग को उड़ने दो 

पेंच लड़ाकर
दूसरे की पतंग काटना
अपने पतंग के सुरक्षित होने
की शर्त नहीं है 
कहीं कोई दूसरा पेंच
तैयार करने में लगा है
बचो 
पतंग उड़ाओ,
पर पेंच लड़ाकर काटना
ठीक नहीं
उड़ती हुई पतंग को
उड़ने दो 
प्रसन्न होने दो बच्चों को
मत सिखाओ उन्हें
पेंच लड़ाने की कला !




         गणित

मैं गणित में कमजोर हूँ
नम्बर कभी कम नहीं आए
फिर भी कमजोर हूँ
गणित में
मेरा छंद कमजोर है
व्याकरण पढ़ा है मैनें 
जबकि काव्यशास्त्र भी पढ़ा है
और पढ़ाया है विद्यार्थियों को
फिर भी कमजोर है छंद
बावजूद गणित और
छंद में कमजोर होने के
एक
मुकम्मल आदमी हूँ मैं ।



          राह

घर से निकला तो
पत्नी की मुस्कुराहट कहें कुछ 
बच्चों की टा-टा कहें कुछ 
या फिर कुछ और....
थोड़ी दूर आगे जाने पर
सक्रिय हुआ दिमाग
जो अभी घर में बैठा था,
निकलते थे जब पिता घर से
माँ कभी इस तरह
दरवाजे तक नहीं देखी गयी आँखों से,
खुद हम टा टा वगैरह नहीं जानते थे,
माँ अभी भी हैं
पिता अभी भी हैं
और राह भी ।




          किताबें

कभी माँ
कभी बहन
और कभी कभी पत्नी भी
याद आती है किताबों में
दिख जाते हैं पिता
पितामह समेत,
भाई दिख जाते हैं
कंधे पर लिये मेरी बेटी को
किताबों में ही 
एक भरे पूरे अहसास का नाम है
किताब ।
एक समृद्ध और सुखी परिवार का नाम है किताब
विचार और भाव मिल जाते हैं ग्राहक को,
अपनी मानसिक योग्यता के आधार पर
रक्षा करने के लिये परिवार की
भाव और आशा की रक्षा के लिये,
रक्षा के लिये
आने वाले मनुष्य की।
बेहद जरूरी है किताबों की रक्षा,
बेहद ।
-- कवि की बेटी अजिता त्रिपाठी के सौजन्य से प्राप्त ।

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