अमन त्रिपाठी की कविताएँ
कविता बहती रहती है
कविता बहती रहती है
मेरे अंदर
कभी कहीं कोई पेड़ देख लूँ;
सूखा, ठूँठ
या फिर गिरा हुआ..
कविता जाग जाती है !
कोई भूखी, फटे कपड़े
पहने लड़की देख लूँ
तो कविता उफान मारने लगती है!
कितना छंदमय लगता है
हीरामन का उजड़ा छप्पर..
कुण्डलिया, चौपाई, दोहे सब समेटे हुए !!
एक कवि को और क्या चाहिये-
उजाड़, निर्जन, वीरान..
लब्बोलुआब ये,
कि जहाँ कविता बहती हो!
सुंदर, अच्छी, प्रसन्न जगहों पर
क्या रखा है-
वहाँ कविता थोड़े मिलेगी!
मिल भी गई,
तो वो दर्द कहाँ रहेगा उसमें,
जो जरूरी है,
पढ़ कर आह! करने के
लिये ।
मेरे अंदर
कभी कहीं कोई पेड़ देख लूँ;
सूखा, ठूँठ
या फिर गिरा हुआ..
कविता जाग जाती है !
कोई भूखी, फटे कपड़े
पहने लड़की देख लूँ
तो कविता उफान मारने लगती है!
कितना छंदमय लगता है
हीरामन का उजड़ा छप्पर..
कुण्डलिया, चौपाई, दोहे सब समेटे हुए !!
एक कवि को और क्या चाहिये-
उजाड़, निर्जन, वीरान..
लब्बोलुआब ये,
कि जहाँ कविता बहती हो!
सुंदर, अच्छी, प्रसन्न जगहों पर
क्या रखा है-
वहाँ कविता थोड़े मिलेगी!
मिल भी गई,
तो वो दर्द कहाँ रहेगा उसमें,
जो जरूरी है,
पढ़ कर आह! करने के
लिये ।
विश्वास ही प्रेम
सौगंधों की समिधा लेकर
किया होम तुमने विश्वास
तब भी कहते हो प्रिय!
दिखलाते हो प्रेम?
नहीं चाहिये, नहीं चाहिये
नहीं चाहिये झूठा प्रेम!
महल बनालो इच्छाओं का
नीचे शंकाओं की रेत
देते रहो खोखली दलीलें
अधिकारों की,
किंतु कहो,
क्या सचमुच देते हो
अधिकार
स्वतंत्रता का ?
नहीं समझते,
पता नहीं अब कब समझोगे..
विश्वास से प्रेम है
विश्वास ही प्रेम है!
किया होम तुमने विश्वास
तब भी कहते हो प्रिय!
दिखलाते हो प्रेम?
नहीं चाहिये, नहीं चाहिये
नहीं चाहिये झूठा प्रेम!
महल बनालो इच्छाओं का
नीचे शंकाओं की रेत
देते रहो खोखली दलीलें
अधिकारों की,
किंतु कहो,
क्या सचमुच देते हो
अधिकार
स्वतंत्रता का ?
नहीं समझते,
पता नहीं अब कब समझोगे..
विश्वास से प्रेम है
विश्वास ही प्रेम है!
कबीर आज के
सुना है,
कभी कहीं कोई कबीर था..
बहुत गरियाता था सबको
पर
मैं आज उसको क्यों याद कर रहा हूँ ?
गरियाने की वजह से -?
या शायद इसलिए
कि, अब वही बचा है
याद करने लायक..
लोग तो बहुत कोशिश करेंगे
कि फिर कोई
गरियाना न सीखे...
लेकिन ये सिखाना थोड़ी पड़ता है!
बलकरन, अपनी माँ के रोकने से नहीं रुकेगा
वो बच्चा
जिसको राजा नंगा दिखता है
वो अपने पिता से नहीं पूछेगा!!
लोग तो चाहेंगे
कि तुम कली पैदा हो
फूल- जवान हो
और टूट- मर जाओ
तुम बनना अपराजिता
पर मत बनना उसकी लतर!
पारदर्शी बनो..
काँच की तरह नहीं
पानी की तरह!
तुम गरियाते रहो
ताकि
फिर लोग तुम्हें याद करें
कबीर!!!
शीं शीं चुप्प!! सुनो उधर,
किसी ने
किसी कबीर का नाम लिया है ।
कभी कहीं कोई कबीर था..
बहुत गरियाता था सबको
पर
मैं आज उसको क्यों याद कर रहा हूँ ?
गरियाने की वजह से -?
या शायद इसलिए
कि, अब वही बचा है
याद करने लायक..
लोग तो बहुत कोशिश करेंगे
कि फिर कोई
गरियाना न सीखे...
लेकिन ये सिखाना थोड़ी पड़ता है!
बलकरन, अपनी माँ के रोकने से नहीं रुकेगा
वो बच्चा
जिसको राजा नंगा दिखता है
वो अपने पिता से नहीं पूछेगा!!
लोग तो चाहेंगे
कि तुम कली पैदा हो
फूल- जवान हो
और टूट- मर जाओ
तुम बनना अपराजिता
पर मत बनना उसकी लतर!
पारदर्शी बनो..
काँच की तरह नहीं
पानी की तरह!
तुम गरियाते रहो
ताकि
फिर लोग तुम्हें याद करें
कबीर!!!
शीं शीं चुप्प!! सुनो उधर,
किसी ने
किसी कबीर का नाम लिया है ।
महसूस करो कविता
क्या जरूरी है?
शब्दों का जाल
अभिव्यक्ति के लिये...
होता तो ऐसा है
कि भाव मर जाता है अक्सर
जाल में फँसी मछली की तरह ।
नहीं,
नहीं चाहिये शब्द...
बहने दो भावों को
पानी की तरह
उड़ने दो दृश्यों को
पतंगों की तरह
और महसूस करो कविता
अपने चारों ओर
हर समय
शब्दों का जाल
अभिव्यक्ति के लिये...
होता तो ऐसा है
कि भाव मर जाता है अक्सर
जाल में फँसी मछली की तरह ।
नहीं,
नहीं चाहिये शब्द...
बहने दो भावों को
पानी की तरह
उड़ने दो दृश्यों को
पतंगों की तरह
और महसूस करो कविता
अपने चारों ओर
हर समय
हर जगह ।
रिश्तों की चादर
ऐसा पहली बार नहीं है,
रिश्तों की चादर को फटते
देखा है
दसियों बार..
फिर उन्हीं को सीने की कोशिश में,
बीते हैं पल
पलों में सदियाँ ।
पहली बार नहीं है ऐसा
जब देखा हो रूठते
जिंदगी को
खुद से...
फिर देखा है,
बुलाते भी!
रहता हूँ इसी उधेड़बुन में..
सीऊँ चादर,
या
मनाऊँ जिंदगी को ।
रिश्तों की चादर को फटते
देखा है
दसियों बार..
फिर उन्हीं को सीने की कोशिश में,
बीते हैं पल
पलों में सदियाँ ।
पहली बार नहीं है ऐसा
जब देखा हो रूठते
जिंदगी को
खुद से...
फिर देखा है,
बुलाते भी!
रहता हूँ इसी उधेड़बुन में..
सीऊँ चादर,
या
मनाऊँ जिंदगी को ।
ज़िन्दगी का आँवाँ
अभी कच्चा हूँ क्या ?
क्या पकाओगे मुझे ?
कहाँ?
ऐसा आवाँ है तुम्हारे पास ?
पक चुका हूँ मैं
कोख में
परिस्थितियों के आवें में
वैसे अभी भी
पक ही रहा हूँ
उम्र के आवें में
पक जाऊँगा पूर्णतया..
तो हो जाऊँगा..
शांत !!
क्या पकाओगे मुझे ?
कहाँ?
ऐसा आवाँ है तुम्हारे पास ?
पक चुका हूँ मैं
कोख में
परिस्थितियों के आवें में
वैसे अभी भी
पक ही रहा हूँ
उम्र के आवें में
पक जाऊँगा पूर्णतया..
तो हो जाऊँगा..
शांत !!
--- अमन त्रिपाठी
( लखनऊ उ प्र )
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