Wednesday, 7 October 2015

स्त्री मन की कविताएँ


      विजय कुमार सप्पत्ति बैंगलोर के हिन्दी कवि है । उन की मातृ भाषा कन्नड़ है 
   पर वे हिन्दी में
     और कभी अँगरेजी में कविताएँ आदि लिखते हैं । वे जाने माने    चिट्ठाकार ( ब्लागर ) हैं । हिन्दी
    और अँगरेजी में उन के ब्लाग हैं । यहाँ उन     की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं   , जो नारी मन पर केन्द्रित हैं ।
    साहित्यकार   अपनी रचना में परकाया प्रवेश कर लेता है । ये कविताएँ इस बात की    प्रमाण हैं ।
       ---- सुधेश 

    
अक्सर तेरा साया

एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..

मेरे हाथ, मेरे दिल की तरह
कांपते है, जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ,
कोई अजनबी बनकर तुम आते हो;
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो 

तेरी यादो का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ 
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में,
पर तेरी मुस्कराहट,
जाने कैसे बहती चली आती है,
न जानेमुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे,
कोई माझी, तेरे किनारे मुझे ले जाए,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा,
या मुझे वहां बुला ले......

कही कोई नहीं है जी.......

कहीं कोई नहीं है जी.....कोई नहीं,
बस यूँ ही था कोई 
जो जाने अनजाने में 
बस गया था दिल में..
पर वो कोई नहीं है जी ...

एक दोस्त था जो अब भी है,
जो कभी कभी फ़ोन करके 
शहर के मौसम के बारे में पूछता है,
मेरे मन के आसमान पर 
उसके नाम के बादल अब भी है..
पर कोई नहीं है जी....

कुछ झूठ है इन बातो में 
और शायद,थोडा सा सच भी है 
जज्बातों से भरा हुआ वो था
उम्मीदों की जागीर थी उसके पास 
पर मैंने ही उसकी राह पर से
अपनी नजरो को हटा दिया 
पर कोई नहीं है जी.....

कोई है, जो दूर होकर भी पास है 
और जो होकर भी कहीं नहीं है 
बस कोई है.." कहाँ हो जानू ",
क्या.......कौन........
नहीं नहीं कोई नहीं है जी...

मेरे संग उसने ख्वाब देखे थे चंद
कुछ रंगीन थे, कुछ सिर्फ नाम ही थे 
है कोई जो बेगाना है,पता नहीं ? 
मेरा अपना नहीं, सच में ?
कोई नहीं है वो जी....

कोई साथी सा था.
हमसफ़र बनना चाहता था,
चंद कदम हम साथ भी चले..
पर दुनिया की बातो में मैं आ गयी
बस साथ छूट गया
कोई नहीं है जी....

कोई चेहरा सा रहता है,
ख्यालो में...याद का नाम दूं उसे ?
कभी कभी अक्सर अकेले में 
आंसू बन कर बहता है 
कोई नहीं था जी....

बस यूँ ही 
मुझे सपने देखने की आदत है 
एक सच्चा सपना गलती से देख लिया था 
कोई नहीं है जी, कोई नहीं है....

सच में...पता नहीं 
लेकिन कभी कभी मैं गली के मोड़ तक जाकर आती हूँ
अकेले ही जाती हूँ और अकेले ही आती हूँ..
कही कोई नहीं है जी.....
कोई नहीं......

तू “

मेरी दुनिया में जब मैं खामोश रहती हूँ,
तो, 
मैं अक्सर सोचती हूँ
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……

एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है.........

तेरी क़समें,तेरे वादें,तेरे सपने,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु,तेरा आना, तेरा जाना ॥
अल्लाह.....कितनी यादें है तेरी........

दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो,तू यहाँ नही था.....
तू कहाँ चला गया....
खुदाया !!!! 
ये आज कौन पराया मेरे पास है........

मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!
नैनन को मेरे, तुमरी  छवि हर पल नज़र आये 
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

बावरा मन ये उड़ उड़ जाये जाने कौन देश रे
गीत सावन के ये गाये तोहे लेकर मन में 
रिमझिम गिरती फुहारे बस आग लगाये 
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

सांझ ये गहरी, साँसों को मोरी रंगाये,
तेरे दरश को तरसे है ये आँगन मोरा 
हर कोई सजन,अपने घर लौट कर आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

बिंदियापायलआँचलकंगन चूड़ी  पहनू सजना  
करके सोलह श्रृंगार तोरी राह देखे ये सजनी 
तोसे लगन लगा कर, रोग  दिल को लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........
बरस रही है आँखे मोरी संग बादलवा..
पिया तू नहीं जाने मुझ बावरी का  दुःख रे 
अब के बरस,  ये राते नित नया जलाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!! 

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........
  
आँगन खड़ी जाने कब से कि तोसे संग जाऊं 
चुनरिया मोरी भीग जाये आँखों के सावन से  
ओह रे पिया, काहे ये जुल्म मुझ पर तू ढाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!


“ मैं तुम्हारी स्त्री  एक अपरिचिता “

मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ; 
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से, “ आज नया क्या है ? ” 

कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से, तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही..
ताकि, मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू.
ताकि, मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू,
ताकि, मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू.

तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर  बन सका,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमे, सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है..
मैं नहीं..
क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना.

एक स्त्री का मन, क्या होता है,
तुम जान  सके..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़  सके

मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध,
हमारी मित्रता का, वो तो तुम भूल ही गए..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही...
क्योंकि तुम्हारा भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है..
और  अक्सर  चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ.
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है.

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे,

लेकिन तुम तब भी मेरा भोग करोंगे,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ 

मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी 
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी 
एक स्त्री....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही 
जो तुम्हारे लिए उपेक्षित रही 
जो तुम्हारे लिए अबला रही...

पर हाँ, तुम मुझे भले कभी जान न सके 
फिर भी..मैं तुम्हारी ही रही....
एक स्त्री जो हूँ.....


मेहर 

मेरे शौहर, तलाक बोल कर
आज आपने मुझे तलाक दे दिया !

अपने शौहर होने का ये धर्म भी
आज आपने पूरा कर दिया !

आज आप कह रहे हो कि 
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चली जा....
इस घर से निकल जा....।

लेकिन उन बरसो का क्या मोल है ;
जो मेरे थेलेकिन मैंने आपके नाम कर दिए...
उसे क्या आप इस मेहर से तोल पाओंगे..? 

जो मैंने आपके साथ दिन गुजारे,
उन दिनों में जो मोहब्बत मैंने आपसे की
उन दिनों की मोहब्बत का क्या मोल है.? .

और वो जो आपकी मुश्किलों में
हर पल मैं आपके साथ थी,
उस अहसास का क्या मोल है.? 

और ज़िन्दगी के हर सुख दुःख में ;
मैं आपका हमसफर बनी,
उस सफर का क्या मोल है..?

आज आप कह रहे हो कि
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चली जा....।

मेरी मेहर के साथ,
मेरी जवानी,
मेरी मोहब्बत
मेरे अहसास,
क्या इन्हे भी लौटा सकोंगे आप ?



“ सन्नाटो की आवाजे “


जब हम जुदा हुए थे..
उस दिन अमावस थी !!
रात भी चुप थी और हम भी चुप थे.....!
एक उम्र भर की खामोशी लिए हुए...!!!

मैंने देखा, तुमने सफ़ेद शर्ट पहनी थी....
जो मैंने तुम्हे तुम्हारे जन्मदिन पर दी थी 
और तुम्हारी आँखे लाल थी
मैं जानती थी,
तुम रात भर सोये नही...
और रोते रहे थे......।

मैं खामोश थी
मेरे चेहरे पर शमशान का सूनापन था.

हम पास बैठे थे और
रात की कालिमा को ;
अपने भीतर समाते हुए देख रहे थे..।

तुम मेरी हथेली पर अपनी कांपती उँगलियों से
मेरा नाम लिख रहे थे...
मैंने कहा,
ये नाम अब दिल पर छप रहा है.।

तुमने अजीब सी हँसी हँसते हुए कहा,
हाँठीक उसी तरह
जैसे तुमने एक दिन अपने होंठों से ;
मेरी पीठ पर अपना नाम लिखा था ;
और वो नाम अब मेरे दिल पर छपा हुआ है..।

मेरा गला रुंध गया था,
और आँखों से तेरे नाम के आंसू निकल पड़े थे..

तुम ने कहा, एक आखरी बार वहां चलें 
जहाँ हम पहली बार मिले थे....।

मैंने कहा,
अब, वहां क्या है...
सिवाए,हमारी परछाइयों के.।

तुमने हँसते हुए कहा..
बस, उन्ही परछाइयों के साथ तो अब जीना है .

हम वहां गए,
उन सारी मुलाकातों को याद किया और बहुत रोये....
तुमने कहा,इस से तो अच्छा था की हम मिले ही न होते ;
मैंने कहा, इसी दर्द को तो जीना है,
और अपनी कायरता का अहसास करते रहना है..
हम फिर बहुत देर तक खामोश बुत बनकर बैठे रहे थे..।

झींगुरों की आवाज़, पेड़ से गिरे हुए पत्तो की आवाज़,
हमारे पैरो की आवाज़, हमारे दिलों की धड़कनों की आवाज़,
तुम्हारे रोने की आवाज़…. मेरे रोने की आवाज़….
तुम्हारी खामोशी.... रात की खामोशी....
मिलन की खामोशी ….जुदाई की खामोशी......
खामोशी की आवाज़ ….
सन्नाटों की आवाज़..।

पता नही कौन चुप था किसकी आवाज़ आ रही थी..
हम पता नही कब तक साथ चले,
पता नही किस मोड़ पर हमने एक दुसरे का हाथ छोड़ा,।

कुछ देर बाद मैंने देखा तो पाया, मैं अकेली थी...
आज बरसो बाद भी अकेली हूँ !

अक्सर उन सन्नाटो की आवाजें,
मुझे सारी बिसरी हुई, बिखरी हुई ;
आवाजें याद दिला देती है..।

मैं अब भी उस जगह जाती हूँ कभी कभी ;
और अपनी रूह को तलाश कर, उससे मिलकर आती हूँ
पर तुम कहीं नज़र नही आतें.।

तुम कहाँ हो..?....


“ कोई एक पल

कभी कभी यूँ ही मैं,
अपनी ज़िन्दगी के बेशुमार
कमरों से गुजरती हुई,
अचानक ही ठहर जाती हूँ,
जब कोई एक पल, मुझे
तेरी याद दिला जाता है !!!

उस पल में कोई हवा बसंती,
गुजरे हुए बरसो की याद ले आती है

जहाँ सरसों के खेतों की
मस्त बयार होती है
जहाँ बैशाखी की रात के
जलसों की अंगार होती है ।

और उस पार खड़े,
तेरी आंखों में मेरे लिए प्यार होता है
और धीमे धीमे बढता हुआ,
मेरा इकरार होता है !!!

उस पल में कोई सर्द हवा का झोंका
तेरे हाथो का असर मेरी जुल्फों में कर जाता है,
और तेरे होठों का असर मेरे चेहरे पर कर जाता है,
और मैं शर्माकर तेरे सीने में छूप जाती हूँ..।
यूँ ही कुछ ऐसे रूककर बीते हुए,
आँखों के पानी में ठहरे हुए ;
दिल की बर्फ में जमे हुए ;
प्यार की आग में जलते हुए...
सपने मुझे अपनी बाहों में बुलाते है !!!

पर मैं और मेरी जिंदगी तो ;
कुछ दूसरे कमरों में भटकती है !

अचानक ही यादो के झोंके
मुझे तुझसे मिला देते है.....
और एक पल में मुझे
कई सदियों की खुशी दे जाते है..।

काश
इन पलो की उम्र 
सौ बरस की होती................।

इन्तज़ार 

मेरी ज़िन्दगी के दश्त,
बड़े वीराने है
दर्द की तन्हाइयां 
उगती है
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम.......!!

किसी दरवेश का शाप हूँ मैं !!

अक्सर शफ़क शाम के
सन्नाटों में यादों के दिये ;
जला लेती हूँ मैं.। 

लम्हा लम्हा साँस लेती हूँ मैं
किसी अपने के तस्सवुर में जीती हूँ मैं.. ।

सदियां गुजर गयी है...
मेरे ख्वाब,मेरे ख्याल न बन सके...
जिस्म के अहसास,बुत बन कर रह गये.
रूह की आवाज न बन सके.।

मैं मरीजे- उल्फत बन गई हूँ
वीरानों की खामोशियों में ;
किसी साये की आहट का इन्तजार है..।

एक आखरी आस उठी है ;
मन में दफअतन आज....
कोई भटका हुआ मुसाफिर ही आ जाये....
मेरी दरख्तों को थाम ले. ।

अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की हीर बनूँ ।

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