कवि परिचयः
जन्मः 1932 में सूरीनाम में। ९ जनवरी २०१६ को दिवंगत ।
शिक्षाः आरंभिक शिक्षा डच प्राइमरी स्कूल में, स्वाध्याय से हिंदी पढ़ना आरंभ। सन् 1960 में भारत से श्री महातम
सिंह के आने से प्रेरणा मिली तथा 1980 में भारत जा कर हिंदी अध्ययन किया। निरंतर हिंदी अध्यापन।
कृतित्वः
1. फूलों के पंछी (पद्य)
2. कृष्ण सुदामा और लक्ष्मी पूजा (नाटक)
3. फूलों का बहार (पद्य)
4. बसंत- होली (गद्य और पद्य)
विभिन्न त्योहारों पर अवसरानुकूल गीत और नाटक लिखते रहे हैं, जिनका मंचन भी किया जाता है,
किंतु इन में से बहुत कम प्रकाशित हो पाए हैं। काव्य, नाटक, निबंध के रचयिता, एक कुशल अभिनेता, रंगमंच
निर्देशक, गायक और सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं
आपकी कविताओं में प्रवास का दर्द है, प्रेरणा है। कवि रमण को वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी
पीढ़ी की भी चिंता है, देश-प्रेम, हिंदी-प्रेम, संस्कृति प्रेम, की अग्नि सदा जलती रहती है। कुछ समय से
शारीरिक कष्टों के रहते भी इनकी लेखनी व अध्यापन की गति पर प्रभाव नहीं पड़ा है। सूरीनाम में हिंदी
साहित्य के विकास को गति प्रदान करने में आपका विशेष योगदान रहा है और आगामी पीढ़ियाँ उनकी
कर्मठता और साहित्य कौशल से प्रेरणा लेती रहेंगी।
सूरीनामी बालक
सूरीनामी बालक नाम हमारा
देश की सेवा काम हमारा
जितने आसमान पर तारे
उतने साथी सखा हमारे।
जो चाहे सो कर सकते हैं
नहीं किसी से डर सकते हैं
बहा प्रेम की गंगा देंगे
मिटा देश से दंगा देंगे।
देश हमारा सबसे प्यारा
दुनिया में सबसे न्यारा।
हम भी इसके प्यारे हैं
जय सूरीनाम के नारे हैं।
(रचनाकाल – 1975)
दुनिया के बच्चे
दुनिया के बच्चे मन के सच्चे
काम करो तुम अच्छे अच्छे
दिल में करो तुम सबके सवेरा
जग में होवे आदर तेरा
खेलो कूदो खुशी मनाओ
ठीक समय पर भोजन खाओ।
पढ़ने में मन खूब लगाओ
पढ़ लिखकर ज्ञानी बन जाओ
देते हैं परिचय हम नादान
हम बच्चे हैं घर की शान।
(रचनाकाल – 1978)
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा,
हम इसके यह प्यारा देश हमारा।
इस मिट्टी में बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल खड़े हुए हैं।
जब न हमें था कुछ भी आता,
जुड़ा तभी से इस से नाता।
पथिक कहीं से जो भी आता,
आश्रय प्रेम इस से पाता।
सबसे सुंदर दुनिया भर में,
प्यारा, प्यारा देश हमारा।
सभी देशों से न्यारा है,
बोलो सूरीनाम हमारा है।
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा,
हम इसके यह प्यारा देश हमारा।
(रचनाकाल – 1975)
साहस
खड़े शान से रहना अच्छा, घायल शीश उठाए,
उचित नहीं है लिए हिम्मत, रखना शीश झुकाए।
यदि स्वतंत्रता से अपनी है हमें तनिक भी प्यार,
तो खुशी से स्वीकार करें हम चाहे तोहमत लगें हजार।
देश प्रेम के साथ स्वार्थ की बात नहीं चल सकती,
सूर्य चमकता रहे अगर तो धूप नहीं ढल सकती।
बुरे भले सब इंसानों की मना रहे हैं खैर,
हमें बुराई से नफरत है नहीं बुरे से बैर।
करते प्यार देश से हैं हम, और देश के जन से,
छल कपट को दूर हटाकर सेवा करेंगे तन-धन से।
ना चाहिए है दुनिया की दौलत और ना ऊँचा नाम,
अपने होंठों को खिलने दो, कहकर जय सूरीनाम।
( रचना काल १९७५ )
यही तो अपनी हिंदी है
जब तक सूर्योदय न हुआ था, तभी तक दीप की शोभा थी।
जब तक हिंदी ना पनपी थी, तब तक कईं भाषाएँ थीं।
जब से इसको पाया है, तभी से अपनापन आया है।
भारतीय संस्कृति को इसने जन-जन तक पहुँचाया है।
गंगा माँ की शोभा जैसी जोश ले आगे बढ़ी है यह।
सब बहनों से बड़ी भी है, सब से आगे खड़ी भी है।
सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
घर बाहर और हाट बाजार करते हैं सब इसको प्यार।
राग द्वेष को इसने मिटाया, सभी जाति को गले लगाया।
रात में दिन का काम है करती, चित्त में ज्ञान प्रकाश है भरती।
घर बैठे है सैर कराती, बिना यान के चलती-फिरती।
राम रहीम करीम हो कोई, वेद कुरान बाइबल हो जोई।
झगड़ा मजहब कितने हों किंतु भाषा सभी की हिंदी है।
यह सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
भारत से उड़ कर सूरीनाम में आयी है तू बड़े काम में।
हृदय अपना हुआ पवित्तर, जब से सीखा तुम को पढ़-पढ़।
तुझ से ही मुझे ज्ञान मिला, ऐसा अमृत पिला दिया।
अब तू ही मेरी साकी है, इसी नशे में रहना चाहूँ,
जब तक जीवन बाकी है।
मान दान और वेद-पुरान,सगरो होता तेरा आख्यान
ऋषि- मुनि जप-जोग निदान, सबके तू ही तन का प्राण।
तू ध्यानमग्न की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
(रचनाकाल – 1984)
प्रवासी विरह
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार
किरवा काटिस मुड़िया में हम भाग आइली परदेस,
अपने देश में अकड़त रहिली यहाँ कुली का भेस।
सात संमदर पार हो आइली छूटा भारत देश।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
भैसी चरावत दूध खात और खेलत रहत कबड्डी।
आकर पड़ गया भक्खड़ मा यहाँ टूट गई मोरी हड्डी।
देह की पीरा सही ना जाए, दाना हो गई मिट्टी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
श्रीराम टापू के बदले पकड़ा हमें दलाल,
यहाँ तो चींटी-चूँटा काटे बुरा हो गया हाल।
दिन भर मेहनत करते करते सूख गया मोरा गाल।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
भाई छूट गइल, बाप भी छूटा औ छूटी महतारी
लड़कन-बालन सब कुछ छूटा, छूट गई मोरी मेहरी
धोती कुरता सब कुछ छूटा बदन पर रह गई लुंगी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
(रचनाकाल – 1984)
किरवा काटिस मुड़िया में – सिर में कीड़े ने काट लिया/मति मारी गई
कुली – पेलाँटेशन के मजदूरों को कुली कहा जाता था
भक्खड़ – भाड़ में या कष्ट में
महतारी – माँ
मैं सरनामी हूँ
कलकत्ते से पुरखे आए डिपु में नाम लिखाय के
सूरीनाम में डेरा डाला जात पाँत लुकुवाय के।
इसी देश में गर-गढ़ गए खून-पसीने बहाय के
जाते-जाते हमें छोड़ गए सुंदर जवान बनाय के।
अब तो मेरा देश यही है कहूँगा मैं गोहराय के
मुझे कोई परदेशी बोला मारूँगा ढेला बहाय के।
भारती कुरता पहन लिया हूँ इंग्लिस्तानी पायजामा सिलाय के
सबके बीच घूम रहा हूँ सरनामी चमोटी लगाय के।
यहीं पढ़ना लिखना अपना यहीं का दाना पानी है
यहीं पे बचपन खेला कूदा अब तो आई जवानी है।
इस धरती की शान बढ़ाऊँगा सारी शक्ति लगाय के
मैं तो हमेशा यहीं रहूँगा सरनामी जनता कहाय के।
(रचनाकाल – 1983)
लुकुवाय के – छिपा कर
गोहराय के – पुकार के
चमोटी – बेल्ट
मनुष्यता
दो ही शब्द काफी हैं इस विश्व सार में
मनुष्यता रहे गर मनुष्य के प्यार में।
हृदय उदार हो मनुष्य का मनुष्य से
अखंड प्यार हो मनुष्य का मनुष्य से ।
मनुष्य हम बनें, यह सभी का लक्ष्य हो
मनुष्य के लिए ना मनुष्य भक्ष्य हो।
उस देस में सभी से प्रेम भाव चाहिए
ना जाति-पाँति-धर्म का दुराव चाहिए।
जाति-धर्म तो प्रसिद्ध है मनुष्य प्रेम का
जब से भू रही है यह नियम चल रहा।
हर जिगर में रम रही है मनुष्यता
कर रही है सबको प्रसिद्ध विश्व में।
इस गान से पता लगा कि है प्रभु कहाँ
मनुष्य प्रेम बढ़ता है निरंतर जहाँ-जहां ।
रमण कह रहा कि मनुष्यता ही प्रेम धर्म हो
हर मनुष्य को मनुष्य ज्ञान, मान, धर्म कर्म दो।
(रचनाकाल – १९६८ )
( भावना सक्सेना से साभार )
--- भावना सक्सेना
सूरीनामी बालक
सूरीनामी बालक नाम हमारा
देश की सेवा काम हमारा
जितने आसमान पर तारे,
उतने साथी सखा हमारे।
जो चाहे सो कर सकते हैं
नहीं किसी से डर सकते हैं
बहा प्रेम की गंगा देंगे
मिटा देश से दंगा देंगे।
देश हमारा सबसे प्यारा
दुनिया में सबसे न्यारा।
हम भी इसके प्यारे हैं
जय सूरीनाम के नारे हैं।
(रचनाकाल – 1975)
दुनिया के बच्चे
दुनिया के बच्चे मन के सच्चे
काम करो तुम अच्छे अच्छे
दिल में करो तुम सबके सवेरा
जग में होवे आदर तेरा
खेलो कूदो खुशी मनाओ
ठीक समय पर भोजन खाओ।
पढ़ने में मन खूब लगाओ
पढ़ लिखकर ज्ञानी बन जाओ
देते हैं परिचय हम नादान
हम बच्चे हैं घर की शान।
(रचनाकाल – 1978)
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा,
हम इसके यह प्यारा देश हमारा।
इस मिट्टी में बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल खड़े हुए हैं।
जब न हमें था कुछ भी आता,
जुड़ा तभी से इस से नाता।
पथिक कहीं से जो भी आता,
आश्रय प्रेम इस से पाता।
सबसे सुंदर दुनिया भर में,
प्यारा, प्यारा देश हमारा।
सभी देशों से न्यारा है,
बोलो सूरीनाम हमारा है।
हम सूरीनामी, सूरीनाम हमारा,
हम इसके यह प्यारा देश हमारा।
(रचनाकाल – 1975)
साहस
खड़े शान से रहना अच्छा, घायल शीश उठाए,
उचित नहीं है लिए हिम्मत, रखना शीश झुकाए।
यदि स्वतंत्रता से अपनी है हमें तनिक भी प्यार,
तो खुशी से स्वीकार करें हम चाहे तोहमत लगें हजार।
देश प्रेम के साथ स्वार्थ की बात नहीं चल सकती,
सूर्य चमकता रहे अगर तो धूप नहीं ढल सकती।
बुरे भले सब इंसानों की मना रहे हैं खैर,
हमें बुराई से नफरत है नहीं बुरे से बैर।
करते प्यार देश से हैं हम, और देश के जन से,
छल कपट को दूर हटाकर सेवा करेंगे तन-धन से।
ना चाहिए है दुनिया की दौलत और ना ऊँचा नाम,
अपने होंठों को खिलने दो, कहकर जय सूरीनाम।
( रचना काल १९७५ )
यही तो अपनी हिंदी है
जब तक सूर्योदय न हुआ था, तभी तक दीप की शोभा थी।
जब तक हिंदी ना पनपी थी, तब तक कईं भाषाएँ थीं।
जब से इसको पाया है, तभी से अपनापन आया है।
भारतीय संस्कृति को इसने जन-जन तक पहुँचाया है।
गंगा माँ की शोभा जैसी जोश ले आगे बढ़ी है यह।
सब बहनों से बड़ी भी है, सब से आगे खड़ी भी है।
सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
घर बाहर और हाट बाजार करते हैं सब इसको प्यार।
राग द्वेष को इसने मिटाया, सभी जाति को गले लगाया।
रात में दिन का काम है करती, चित्त में ज्ञान प्रकाश है भरती।
घर बैठे है सैर कराती, बिना यान के चलती-फिरती।
राम रहीम करीम हो कोई, वेद कुरान बाइबल हो जोई।
झगड़ा मजहब कितने हों किंतु भाषा सभी की हिंदी है।
यह सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
भारत से उड़ कर सूरीनाम में आयी है तू बड़े काम में।
हृदय अपना हुआ पवित्तर, जब से सीखा तुम को पढ़-पढ़।
तुझ से ही मुझे ज्ञान मिला, ऐसा अमृत पिला दिया।
अब तू ही मेरी साकी है, इसी नशे में रहना चाहूँ,
जब तक जीवन बाकी है।
मान दान और वेद-पुरान,सगरो होता तेरा आख्यान
ऋषि- मुनि जप-जोग निदान, सबके तू ही तन का प्राण।
तू ध्यानमग्न की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
(रचनाकाल – 1984)
प्रवासी विरह
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार
किरवा काटिस मुड़िया में हम भाग आइली परदेस,
अपने देश में अकड़त रहिली यहाँ कुली का भेस।
सात संमदर पार हो आइली छूटा भारत देश।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
भैसी चरावत दूध खात और खेलत रहत कबड्डी।
आकर पड़ गया भक्खड़ मा यहाँ टूट गई मोरी हड्डी।
देह की पीरा सही ना जाए, दाना हो गई मिट्टी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
श्रीराम टापू के बदले पकड़ा हमें दलाल,
यहाँ तो चींटी-चूँटा काटे बुरा हो गया हाल।
दिन भर मेहनत करते करते सूख गया मोरा गाल।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
भाई छूट गइल, बाप भी छूटा औ छूटी महतारी
लड़कन-बालन सब कुछ छूटा, छूट गई मोरी मेहरी
धोती कुरता सब कुछ छूटा बदन पर रह गई लुंगी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।
(रचनाकाल – 1984)
किरवा काटिस मुड़िया में – सिर में कीड़े ने काट लिया/मति मारी गई
कुली – पेलाँटेशन के मजदूरों को कुली कहा जाता था
भक्खड़ – भाड़ में या कष्ट में
महतारी – माँ
मैं सरनामी हूँ
कलकत्ते से पुरखे आए डिपु में नाम लिखाय के
सूरीनाम में डेरा डाला जात पाँत लुकुवाय के।
इसी देश में गर-गढ़ गए खून-पसीने बहाय के
जाते-जाते हमें छोड़ गए सुंदर जवान बनाय के।
अब तो मेरा देश यही है कहूँगा मैं गोहराय के
मुझे कोई परदेशी बोला मारूँगा ढेला बहाय के।
भारती कुरता पहन लिया हूँ इंग्लिस्तानी पायजामा सिलाय के
सबके बीच घूम रहा हूँ सरनामी चमोटी लगाय के।
यहीं पढ़ना लिखना अपना यहीं का दाना पानी है
यहीं पे बचपन खेला कूदा अब तो आई जवानी है।
इस धरती की शान बढ़ाऊँगा सारी शक्ति लगाय के
मैं तो हमेशा यहीं रहूँगा सरनामी जनता कहाय के।
(रचनाकाल – 1983)
लुकुवाय के – छिपा कर
गोहराय के – पुकार के
चमोटी – बेल्ट
मनुष्यता
दो ही शब्द काफी हैं इस विश्व सार में
मनुष्यता रहे गर मनुष्य के प्यार में।
हृदय उदार हो मनुष्य का मनुष्य से
अखंड प्यार हो मनुष्य का मनुष्य से ।
मनुष्य हम बनें, यह सभी का लक्ष्य हो
मनुष्य के लिए ना मनुष्य भक्ष्य हो।
उस देस में सभी से प्रेम भाव चाहिए
ना जाति-पाँति-धर्म का दुराव चाहिए।
जाति-धर्म तो प्रसिद्ध है मनुष्य प्रेम का
जब से भू रही है यह नियम चल रहा।
हर जिगर में रम रही है मनुष्यता
कर रही है सबको प्रसिद्ध विश्व में।
इस गान से पता लगा कि है प्रभु कहाँ
मनुष्य प्रेम बढ़ता है निरंतर जहाँ-जहां ।
रमण कह रहा कि मनुष्यता ही प्रेम धर्म हो
हर मनुष्य को मनुष्य ज्ञान, मान, धर्म कर्म दो।
(रचनाकाल – १९६८ )
( भावना सक्सेना से साभार )
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