Monday, 8 February 2016

निदा फ़ाज़ली साहब को श्रद्धांजलि

निदा फाज़ली साहब को श्रद्धांजलि
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" घर से मस्जिद है बहुत दूर ,चलो यूँ कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए----"
                जैसे मानवीयता से ओत-प्रोत शेर कहने वाले श्री निदा फाजली साहब आज हमारे बीच में नहीं हैं परन्तु उनकी यह मानवीय संवेदना किस प्रकार किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को छुए बिना रह सकती है ?  

           जीवन के मोड़ों पर कई लोग ऐसे मिल जाते हैं जिनकी स्मृतियों को खज़ाने की भांति संभालकर  रखा जाता है | साहित्य जगत ऐसे रत्नों से भरा हुआ है जिनके न रहने पर भी उनकी सुगंध वातावरण को महकाती रहती  है,भौतिक शरीर न रहने पर भी वे हमारी स्मृतियों में आबाद रहते हैं  |  
           लगभग तींन  वर्ष पूर्व तक मैं 'सिटी प्लस फिल्म एंड टेलिविज़न इंस्टीटयूट ' में एक 'विजिटिंग फैकल्टी' के रूप में जाती थी,जाती क्या थी घसीटकर ले जाई गई थी | मेरे परम मित्र स्व.श्री आई. एस. माथुर थे जिनके साथ मैंने 'राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान' में कई वर्ष तक काम किया था ,वे मुझे इस नए खुले फिल्म -संस्थान में हिन्दी पढ़ाने के लिए ले गए |उन्हीं दिनों यहाँ पर अनुपम खैर साहब का भी फिल्म-संस्थान खुला था | 
"क्या घर में बैठकर कलम तोडती रहती हो ,कुछ आने वाली पीढी का भी ध्यान रखो | "माथुर साहब साधिकार मुझसे कह सकते थे ,उन  जैसी प्रबुद्ध शख्सियत के सामने किसी की  न चलती |पहले  अहमदाबाद  फिर हैदराबाद और अंत में पुन: अहमदाबाद उनका कार्य-क्षेत्र बना | साहित्य व कला में मेरी   रूचि तो थी ही ,पाटण विश्विद्यालय के अंतर्गत इस संस्थान को रजिस्टर करवाकर उन्होंने मुझे इसके 'टेक्स्ट-बुक बोर्ड' में भी सम्मिलित किया | फिर तो वहाँ बच्चों के साथ बहुत मित्रता हो गई और घर से काफी दूर होंने पर भी मैंने अपना जाना ज़ारी रखा | 
 फिल्म इंस्टीटयूट होने के कारण वहाँ पर कई फिल्मी हस्तियाँ भी  'विजिटिंग फैकल्टी' के रूप में सम्मिलित थीं | उनका वहाँ आना-जाना बना रहता |लेकिन हम जैसे गृहस्थों के लिए वहाँ बहुत अधिक रुक पाना संभव नहीं होता था | फिर भी चार -पाँच घंटे तो लग ही जाते थे |  
            प्रत्येक शुक्रवार को वहाँ पर रात को  एक कार्यक्रम होता है जिसमें विभिन्न प्रसिद्ध हस्तियों को आमंत्रित किया जाता है |इसमें किसी उपन्यास पर भी चर्चा होती ,कविताओं पर चर्चा होती ,शास्त्रीय संगीत व नृत्य के कार्यक्रम होते | इस शुक्रवारीय  कार्यक्रम के तहत कभी -कभी हम जैसे सामान्य लोगों को भी एकल रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया जाता,हमारे उपन्यासों पर भी चर्चा रख दी जाती अथवा काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया जाता  | क्योंकि कार्यक्रम रात को होता है और कार से  लगभग 55 मिनट लगते हैं ,मैं अधिकांश उस कार्यक्रम में जाने के लिए मना ही कर देती |    
           एकल पाठ के इस कार्यक्रम के अंतर्गत  एक बार निदा फाजली साहब को आमंत्रित किया गया वैसे मुझे पता लगा था कि वे इससे पूर्व भी आ चुके थे लेकिन  तब मैं संस्थान का हिस्सा नहीं थी  |मैं इसमें भी जाने में आनाकानी कर रही थी | लेकिन फिर वही मेरे स्व.मित्र माथुर अड़ गए, वे ही वहाँ के निदेशक थे | 
" कैसी साहित्यकार  हो ? निदा फाजली साहब को सुनने नहीं आना चाहतीं?"जब उन्हें कोई काम करवाना हो  वे इसी प्रकार भड़का देते थे| आखिर मैं ड्राइवर को बुलाकर अपनी पुत्रवधू डॉ. वेणु श्रीवाल को अपने साथ चलने के लिए पटाकर  संस्थान पहुंची |इस प्रकार कई कार्यक्रमों में मैं उसको पटाकर ले जाती थी | यह कार्यक्रम रात में 9 बजे शुरू  होता और समाप्त होते ,घर पहुँचते 12 बज जाते |
उस दिन रास्ते में ही थे कि माथुर साहब का फोन आ  गया ;
" भई कहाँ तक पहुंचे,जल्दी पहुँचो कार्यक्रम शुरू नहीं होगा तब तक | "
कमाल ही थे वो भी !
         पहले भी कई बार निदा फाज़ली साहब को सुन चुकी थी लेकिन इस बार कोई और ही बात थी   बेहद मुस्कुराता ,चुस्त-दुरुस्त चेहरा  बिलकुल मेरे सामने था |वास्तव में हमारे पहुँचने के बाद ही  माथुर साहब ने कार्यक्रम शुरू किया | तब तक संस्थान के संरक्षक श्री अशोक  पुरोहित ,गोविन्द मिश्र जी ,अहमदाबाद आकाशवाणी के सादिक नूर पठान,अवकाश प्राप्त आई.एस श्री विजय रंचन   आदि के साथ उनका वार्तालाप चलता रहा | हाँ,जब हम पहुंचे वे मंच पर आसीन  हो चुके थे |   
         श्वेत झकाझक वस्त्रों में उनका वह हँसमुख सुन्दर  चेहरा सबको  अपनी ओर आकर्षित करता और जब वे अपनी रचनाओं का पठन करते तब  लगता उन्हें उसी प्रकार सुनते ही रह जाएं | 
एकल-पाठ  होने के कारण लगभग डेढ़ घंटे तक उनका कार्यक्रम चलने वाला था | उन्होंने अपनी बहुत सी सुन्दर व प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत कीं | 
"कच्चे बखिए की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं,
हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं |"
            उन्होंने माँ पर ,बेटी पर अपनी सुन्दर रचनाओं का पाठ किया| परिवार उनके इर्द-गिर्द घूमता नज़र आया | उनकी साहित्यक यात्रा में जैसा कि अधिकांशत:एक गंभीर साहित्यकार में  होता है भौतिक में भी आध्यात्मिकता के दर्शन हुए | जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों पर सहज, सरलता से लिख देना उनकी कलम की खूबी रही | जब वे रचनाएँ प्रस्तुत करते,उनकी रचना से उनका श्रोता इतना जुड़ जाता कि कभी-कभी शब्दों में खोकर तालियों का शोर  भी बात भीतर उतर जाने के बाद वातावरण को गुंजायमान करता |
" कभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है ,
 जिन बातों को खुद नहीं समझे ,औरों को समझाया है | "
              ऐसे खूबसूरत शेर कहने वाले निदा फाज़ली साहब ने 'कॉफ़ी-ब्रेक'  के दौरान पूछा ;
"अच्छा ! आप ही थीं जिनके लिए इंतजार हो रहा था ?"
          और माथुर साहब अपनी आदत के अनुसार ठठाकर हँस पड़े थे| उनसे काफ़ी देर तक आत्मीय वार्तालाप होता रहा | मेरी गुजराती पुत्रवधू से भी उन्होंने पूछा कि क्या वह उनकी रचनाओं को समझ पाई है ? आज की कविता पर बात हुई ,फिल्म-इंडस्ट्री पर कुछ बातें हुईं | इस कुछ देर में मुझे उनके भीतर के  खूबसूरत इंसान ने प्रभावित किया | 
            आज वे हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ ज़हन में सदा बसी रहेंगी | वे जहाँ कहीं भी हो ,उनकी आत्मा की शान्ति के लिए मैं दुआ करती हूँ | साथ ही मैं श्री आई.एस. माथुर की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना भी करती हूँ जिनके  माध्यम से मैं उनका सानिध्य प्राप्त कर सकी  |

                                                                         नमन 
                                                                       डॉ.प्रणव भारती  

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