लखनऊ के उदीयमान कवि तरुण प्रकाश से हाल में परिचय हुआ , पर मैं उन के गीत
पढ कर मुग्ध हो गया । उन के गीत नूतन विम्बों की लड़ियाँ हैं , उन में नवीन उपमाओं और रूपकों की
मालाएँ सज रही हैं । कथ्य की विविधता और शिल्प की नवीनता उन के गीतों में भरपूर है । नवगीत के
इस ज्वलन्त हस्ताक्षर को यहाँ प्रस्तुत कर मुझे अति प्रसन्नता हो रही है ।
उन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है ---
श्री मनोज प्रकाश श्रीवास्तव के पुत्र ।
जन्म तिथि : 07.09.1963
संपर्क : C - 3263 राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
सम्प्रति : अधिवक्ता एवं विधिक परामर्शदाता
साहित्य कार्य क्षेत्र :
प्रकाशित रचनायें : (१) मैं असहमत हूँ (ग़ज़लें) (२) द्वीप के उस पार ( आधुनिक कवितायेँ) (३) हवा के खिलाफ (ग़ज़लें) तथा पूरे देश की अनेकानेक पत्र - पत्रिकाओं में अनेको रचनाओं का समय - समय पर प्रकाशन
शीघ्र प्रकाश्य : (१) मध्यांतर (कहानी संग्रह) (२) मेरे अन्दर समंदर बोलता है (ग़ज़लें) (३) लिस्ट योरसेल्फ फॉर सक्सेस (इंग्लिश आर्टिकल्स)
गीत (1)
आओ फिर तालाब में कंकर उछालें।
अब नहीं हलचल,
न कोई सुगबुगाहट
अब नहीं पदचाप -
की भी शेष आहट।।
सिर्फ आँखो में -
टंका है मूक विस्मय
सिर्फ अधरों पर,
सजी है थरथराहट।।
इस अमावस में कोई दीपक जला लें।
आओ फिर तालाब में कंकर उछालें …।
चल, ज़रा बचपन में,
जाकर घूम आयें
झूम कर बरसात -
में जी भर नहायें।।
रात-दिन एक दूसरे -
को याद करके
देर तक फिर -
बेवजह ही मुस्करायें।।
नाम लिखकर फिर हथेली में छिपा लें।
आओ फिर तालाब में कंकर उछालें …।
-- तरुण प्रकाश
गीत (2)
हम समय लिपिबद्ध कर लें।
चल सहेजे,
दिन, मिनट, घंटे, महीने,
बंद कर लें बोतलों में।
अर्थ ढूंढे,
धूप, जल, बादल, हवा का -
नित्य शाश्वत हलचलों में।।
दे सकें उपहार कल को,
स्वयं को प्रतिबद्ध कर लें।
हम समय लिपिबद्ध कर लें...
जेब में -
भर लें गगन, मौसम सुहाने,
ये समंदर और पर्वत।
मोड़ कर,
रख लें किताबों में धरा के,
चाँद को लिक्खे हुए खत।।
आज बाहुपाश में,
आकाश को आबद्ध कर लें।
हम समय लिपिबद्ध कर लें...
बाँध लें-
मुस्कान, जादू, फूल, खुशबू,
चांदनी की चादरों में।
टांक लें,
सौंदर्य, सरगम, गीत, सपने,
रश्मियों की कतरनों में।।
हम गहन ब्रह्माण्ड के,
हर मौन को स्वरबद्ध कर लें।
हम समय लिपिबद्ध कर लें ....
-- तरुण प्रकाश
गीत (3)
रात फिर महकी,
सितारे भर गए फिर ताल में।
जल कलश में ये,
सुनहरी गिन्नियां
उतरा रही हैं।
पर मछेरों के
सघनतम जाल में,
कब आ रही हैं।।
एक भी तारा हुआ,
कब कैद उनके जाल में।
रात फिर महकी,
सितारे भर गए फिर ताल में।
टिमटिमाते-
झिलमिलाते,
जुगनुओं का यह नगर सा।
नीर के अंदर,
निरंतर -
चल रहा किस भांति जलसा। ।
व्यस्त जुगनू,
हो गए हैं सत्य की पड़ताल में।
रात फिर महकी,
सितारे भर गए फिर ताल में।
आ लगा,
कितना सही,
नटखट निशाना दूर का है ।
ताल के अंदर,
गिरा जा,
थाल मोतीचूर का है ।।
टंक गए
कितने सितारे,
फिर सतह के शाल में।
रात फिर महकी,
सितारे भर गए फिर ताल में।
-- तरुण प्रकाश
गीत (4)
फिर,
दहकने लग गए,
जंगल पलाशों के।
आ गया फिर गाँव में,
रस-राग का मौसम।
देह के अंदर चिटकती,
आग का मौसम।
फिर,
बहकने लग गए,
क्रम बाहुपाशों के।
नापने को, प्रीति की,
गहराईंयों के दिन।
आ गए जिद्दी-हठी,
अंगड़ाइयों के दिन।
फिर,
गमकने लग गए,
स्वर ढोल ताशों के।
फिर,
दहकने लग गए,
जंगल पलाशों के।
-- तरुण प्रकाश
गीत (5)
गिर गया,
फिर एक दिन,
अंधे कुएं में।
फाइलों में, कुछ -
किताबों में गया।
और कुछ, सूखे -
हिसाबों में गया।।
जुड़ गया कुछ,
कंठ पर -
अटके जुएं में।
कुछ फंसा, जग के -
बनाये जाल में,
और कुछ उलझा-
निजी जंजाल में।।
घुल गया कुछ,
काल के,
धुंधले धुंए में।
गिर गया,
फिर एक दिन,
अंधे कुएं में।
-- तरुण प्रकाश
गीत (6)
आज मस्ती में,
चलो आकाश छू लें।
(1)
चांद की मीनार से -
रुनझुन बजाता,
कोई पग धीरे उठाता आ रहा है।
शुक्र की-
बारादरी से जगमगाता ,
कोई मीठे गीत गाता आ रहा है।
हम भरें पेंगे-
समय के साथ झूलें।
(2)
शनि वलय के -
वस्त्र पहने घेर वाले,
कर रहा संकेत है कोई मिलन का ।
स्वर्ण तारों से -
सजी है मांग जिसकी ,
झिलमिलाता रंग शीशे के बदन का।
घुल गया संयम,
रहीं कुछ शेष भूलें।
(3)
लाज की -
लाली सहेजे दूर मंगल,
मुग्ध हो रति सेज को महका रहा है।
शून्य में -
अनगिन झरोखें खोल कोई,
ज्योति से भर-भर कलश ढलका रहा है।
वक्ष में भर-
प्रीत के उच्छ्वास फूलें।
--- तरुण प्रकाश
गीत (7)
कितना शेष,
रहा ये जीवन,
कितना बीत गया।
बेमक़सद,
जीते जाने की,
रीति पुरानी है।
भूसे की है,
ढेर शर्म -
चुल्लू भर पानी है ।
कितना नीर,
घड़े में बाकी,
कितना रीत गया।
क्या लेकर,
आये थे जग में,
क्या ले जाना है।
हानि-लाभ का,
व्यर्थ यहाँ,
अनुमान लगाना है।
कितना हारा,
मन दुनियां से,
कितना जीत गया।
प्लेटफॉर्म पर,
रेलें सारी,
आती-जाती हैं,
रूकती हैं,
कुछ देर दृष्टि -
से फिर खो जाती हैं।
एक मुसाफिर,-
बिछड़ा,
बन फिर दूजा मीत गया।
कितना शेष,
रहा ये जीवन,
कितना बीत गया।
-- तरुण प्रकाश
गीत (8)
रात कल,
आकाश ने,
बादल निचोड़े।
घाट पर,
मेला लगा था -
श्याम मेघों का सघन।
धूल में,
लिपटे हुए थे,
दूर तक जिनके बदन। .
जल-कलश,
भर-भर -
नहाये कल निगोड़े।
खींच कर,
अनगिन लकीरें,
रात के अंतिम पहर
सूखने को -
वस्त्र गीले,
अलगनी पर टांग कर।
खोल
बैठा था,
हवा के बंद घोड़े।
रात कल,
आकाश ने,
बादल निचोड़े।
--तरुण प्रकाश
गीत (9)
अर्थ गहरे हैं,
बड़े हैं,
किन्तु हैं संवाद छोटे।
वर्तनी झूठी हुई है,
और झूठा व्याकरण।
जो छिपाना था, प्रकट है,
और सच पर आवरण ।।
झूठ के,
परिवाद लम्बे,
सत्य के प्रतिवाद छोटे।
नाप पाया कौन तट से,
सिंधु की गहराइयाँ।
आँक पाया कौन भू से,
व्योम की ऊंचाईंयां ।।
नेह की पुस्तक-
सघनतम,
देह के अनुवाद छोटे।
दुःख भरा है गठरियों में,
और चुटकी में ख़ुशी।
ढेर थैलों में रुदन है,
मात्र जेबों में हँसी ।।
जागरण के -
दंश गहरे,
स्वप्न के उन्माद छोटे।
अर्थ गहरे हैं,
बड़े हैं,
किन्तु हैं संवाद छोटे।
-- तरुण प्रकाश
गीत (10)
उसने फिर -
धीरे से मन में,
मेरा नाम छुआ।
दहक उठे-
जंगल पलाश के,
महक उठा महुआ।
आमों के गदराने के दिन,
आ कर ठहर गए।
ख़ुश्बू के खत ले हरकारे,
जग में बिखर गए।
उसके फिर -
अधरों पर नभ से,
अमृत-राग चुआ।
नाचे चीड़- कनार-
ताल दे,
थिरक उठा पछुआ ।
मौसम ने श्रृंगार किया -
शर्मा के, थम-थम के।
सूरज के कुमकुम से,
सागर के दर्पण चमके।
उसके फिर -
मन में मुझको ले,
कुछ-कुछ आज हुआ।
खनक उठे -
कंगन- पॉज़ेबें,
चहक उठा बिछुआ।
धरती पर बारात, हज़ारों-
तारों की निकली ।
आज चांदनी फिर चंदा के,
हाथों से फिसली ।
उसने फिर -
मुझको पाने की,
मांगी आज दुआ।
कितना मीठा -
हुआ अचानक,
जीवन ये कड़ुआ।
-- तरुण प्रकाश
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