मेरे मुक्तक
हरे मैदान में कोई पहाड़ में हैं
उस का राग भोपाली वो दहाड़ में है
ख़ुशामद से या धमका चमका कर ही
सब अपनी अपनी किसी जुगाड़ में हैं ।
वो गीत गाता कोई गजल कहता है
वो ऊँची कुर्सी पर नशे में रहता है
कोई सिंहासन हथियाने की जल्दी में
हर दिन नंगे पाँव दौड़ता रहता है ।
एक किसी पुरस्कार का प्यारा है
दिन में गगन में देखता तारा है
दूजा बस लौटाने की जल्दी में
लगता है पुरस्कार का मारा है ।
न जान पायेगा जानने वाला
शायद जाने नहिं जाननेवाला
तुम तो सब को ही जानते होगे
पर कौन तुम्हें पहचानने वाला ।।
ढ
दिलों में प्यार की रोशनी हो
बाहर भी तब तो रोशनी हो
दिवाली का दीपक कहता है
भीतर औ बाहर रोशनी हो ।
ये मिट्टी दिये आग से निकले हैं
जल तप कर ये अपना रँग बदले हैं
इन में बस थोड़ा सा स्नेह डाल दो,
फ़िर देखो बनते प्रकाश पुतले हैं ।
मन्दिर में रक्खा है धन
बाहर कुछ माँगें निर्धन
देखो प्रसाद भी बिकता
मुफ़्त नहीं कुछ पाता जन ।
दीवाली तब दीवाली है कोई संग साथ हो
दोस्त पड़ौसी हों सुख दु:ख के साथी भी साथ हों
अकेले में क्या जीवन क्या कोई उत्सव त्योहार
मुख में मिष्टान्न और होंठों पर प्रिय मधुर बात हो ।
आ गई अब कैसी घडी है
हरेक पल परीक्षा घडी है
अब कौन सुने किसी का दर्द
सब को यहाँ अपनी पड़ी है ।
नारि जाति रक्षा करे संसार की
पहले निज घर की फिर संसार की
मेरी चिन्ता केवल एक यही है
न मिलती होगी फुर्सत सिंगार की ।
पुरुष वर्ष तो रोज ही फिर यह कैसा आज
वर्ष सभी के एक दिन चलो तुम्हारा आज ।
अगर नारियाँ शुभ कहें तो मानो शुभ कर्म
वरना पुरुषसमाज के अक्सर काले काज ।
ज़िन्दगी है ज़िन्दगी
मरो खपो तो ज़िन्दगी
चैन से रहना अगर
करते रहो बन्दगी ।
मौसम बदल गया है दिल तो मगर वही है
तन को न लगे सर्दी मन की खबर नहीं है
कुछ चाय शाय ले लो जिस को कहें गरम सी
जो हाल है उधर का लगभग इधर वही है ।
लोकार्पण से अमरत्व मिला है किस किस को
फिर भी उस में लीन यहाँ देखा इस उस को
लोकार्पण का धन्धा उसका धन्धा है
वही अनाड़ी न मिला है वह जिस जिस को ।
घडी से समय है समय की घडी है
समय अब कहाँ हाथ में जब घडी है ।
अब साँस लेने की फुर्सत किसे है
तुम्हें बात करने को जल्दी पड़ी है ।
जमाना तो अभी तक आप का है
मेरा है और तुम्हारे बाप का है
जीवन में जो कुछ भी नहीं करते
उन को जमाना मगर शाप का है ।
बीत गया जो वक्त न वापस आता है
वही रुलाता फिर वही हँसा जाता है
जीवन तो नदिया की बहती धारा है
जिस में ही सारा वक्त बहा जाता है ।
खादी वस्त्र नहीं है विचार है
छिपा ग़रीब के प्रति चिर प्यार है
तन ढकना पर देशी कपड़े से
यह स्वदेशी का उच्च विचार है ।
जन्म जन्म का साथ है दोनों का
एक हाथ में हाथ है दोनों का
जन्म जन्म किस ने देखा है यहां
जन्म सफल यदि साथ है दोनों का ।
बडी देर कर दी उस ने आते आते
अब आ ही गया किन्तु वह आते आते
हमें उस का आना यों अच्छा लगा है
वह नहीं आता तो हम मर तो न जाते ।
सपने उम्र भर कैसे रहेंगे
आज हैं नहीं कल को रहेंगे
नयन यदि स्वप्न से ख़ाली ख़ाली
किस की याद में वे फिर बहेंगे ।
समय समय की बात है प्यारे
समय के रंग होते अनियारे
आज देखते नहीं मुड़ कर भी
कभी यार थे हम भी तुम्हारे ।
इन की नींद नहीं टूटेगी चाहे जितने ढोल बजाओ
उछलो कूदो नाचो चाहे तुम मीठे मीठे गीत सुनाओ
कुम्भकर्ण के नाती हैं ये सत्ता मद में चूर पड़े हैं
ये तब ही जागेंगे जब इन की कुर्सी से इन्हें हटाओ ।
हर दिन हो नव वर्ष सा
मिले रोज नव हर्ष सा
महनत कर मिलता यहाँ
विमल नया उत्कर्ष सा ।
इन की विपदा कौन कहे
सभी देख कर मौन रहे
जन्म से भूखे पडे हैं
दुख सारे चुपचाप सहे ।
बात बात में नाराज़गी की बात क्यों है
धूप से खिलते दिन में काली रात क्यों हैं?
अपनों से नाराज़गी भी हो जाया करती
तो इस जिन्दगी में यह अजीब बात क्यों है?
सपने की माया न्यारी है
माया जो सब को प्यारी है
और प्यार का ऐसा जादू
भलों भलों की मति मारी है ।
गण तन्त्र में गण के साथ तन्त्र है
उस में गुंजित जनता का मन्त्र है
बीच में मन्त्र का शोर सुनो शोर
अन्त में मिलता तन्त्र ही तन्त्र है ।
सांसे लेते तो सब जीते
हार हार कर भी कुछ जीते
जीना तो पर जीना उन का
मर मर कर भी जो हैं जीते ।
काँटेदार पेड है यह जिन्दगी
भलाई कम अधिक है दरिन्दगी
मुक़ाबला करो तो जानूँ मर्द
वरना करो काँटों की बन्दगी ।
भूला भटका हूँ संसार में
जला भुना जीवन अंगार में
शीतल छांव कभी मिले शायद
तेरे निश्छल पावन प्यार में ।
गाँव में पीपल पीपल की छांव
छांव में पलता यह सारा गाँव
यह वैसा ही हुआ जैसा सुना था
हाथी के पाँव में सब का पाँव ।
आज तो वसन्त है
रंगा सा दिगन्त है
ममता की पीलिमा
वसन्त ही वसन्त है ।
---- सुधेश
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारका , सैक्टर १०
दिल्ली ११००७५
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