Monday, 30 January 2017

रंजना जायसवाल की कविताएँ

व्यक्तिगत परिचय 
जन्म  ०३ अगस्त को पूर्वी उत्तर-प्रदेश के पडरौना जिले में |
आरम्भिक शिक्षा पडरौना में |
उच्च-शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय से “प्रेमचन्द का साहित्य और नारी-जागरण”’ विषय पर पी-एच.डी |
प्रकाशन आलोचना ,हंस ,वाक् ,नया ज्ञानोदय,समकालीन भारतीय साहित्य,वसुधा,वागर्थ,संवेद सहित राष्ट्रीय-स्तर की सभी पत्रिकाओं तथा जनसत्ता ,राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान इत्यादि पत्रों के राष्ट्रीय,साहित्यिक परिशिष्ठों पर ससम्मान कविता,कहानी ,लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित |
अन्य गतिविधियाँ-साहित्य के अलावा स्त्री-मुक्ति आंदोलनों तथा जन-आंदोलनों में सक्रिय भागेदारी |२००० से साहित्यिक संस्था ‘सृजन’के मध्यम से निरंतर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन | साथ में अध्यापन भी |
प्रकाशित कृतियाँ कविता-संग्रह -मछलियाँ देखती हैं सपने [२००२],दुःख-पतंग [२००७],जिंदगी के कागज पर [२००९],माया नहीं मनुष्य [२००९],जब मैं स्त्री हूँ [२००९] सिर्फ कागज पर नहीं[२०१२]|क्रांति है प्रेम [2015]
कहानी-संग्रह तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि [२०१०],औरत के लिए [२०१३]
लेख-संग्रह स्त्री और सेंसेक्स [२०११]
उपन्यास -..और मेघ बरसते रहे ..[२०१३]
सम्मान अ .भा .अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार[मध्य-प्रदेश], भारतीय दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार [गोंडा ],स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान [रांची ,झारखंड]|विजय देव नारायण साही कविता सम्मान [लखनऊ,हिंदी संस्थान ]भिखारी ठाकुर सम्मान [सीवान,बिहार ]
संपर्क सृजन-ई.डब्ल्यू.एस-२१०,राप्ती-नगर-चतुर्थ-चरण,चरगाँवा,गोरखपुर,पिन-२७३४०९ |मोबाइल-०९४५१८१४९

घास -चार कविताएं 

हरी घास 
थोड़ा सा हरापन मुझे भी दे दो हरी घास
सूख रहा है मन दुनियावी तपिश से तुम जानती हो विपरीत परिस्थितियों में भी जीने की कला नष्ट करने की कोशिशों में भी बचाए रखना अपना अस्तित्व कुचले जाने के बाद भी ना छोडना अपनी कोमलता और धरती पर अपनी पकड़
मुझे भी यह कला सिखला दो हरी घास |
घास के फूल 
घास में खिले हुए हैं
नन्हें कोमल
टीम -टीम करते
लाल पीले बैंगनी
कई रंगों के फूल
घास हरी -भरी पूरी है ख़ुशी से
देख -देखकर
चिढ रहे हैं
नाटे मझोले लम्बे
फूल वाले सभी पेड़ -पौधे
पीला हो रहा है कनेर
पलाश लाल
गुलाब भी प्रसन्न नही है
जबकि जानते हैं
छिले जाने ..रौंदे जाने काटे जाने
या जानवरों का आहार बनने की
घास के फूलों की नियति
जानते हैं
कवि और प्रेमियों के सिवा
देखता तक नहीं कोई इन्हें
लोगों की संभ्रांत पसंद में भी
शामिल नही हैं ये दलित फूल
देवताओं पर भी नही चढ़ाये जाते
फिर भी इनके खिलने से
परेशान हैं
नाटे -मंझोले -लम्बे
फूल वाले सभी पेड़ -पौधे |

बावली घास
नख से शिख तक बादलों के प्रेम में डूबी है घास ना तो उतराती है ना इतराती है विस्मृत कर बैठी है अपना अलग 'अस्तित्व'
देखकर उसे 
हँस रहे हैं बड़े वृक्ष
-
अरी, हमें भी 
छूता है प्रेम ताजा हो लेते हैं कुछ क्षण तुम्हारी तरह भूलते नहीं अपना 'स्व'पेड़ क्या जाने प्रेम को जज्ब कर
स्वयं प्रेम बन जाना यह तो जानती है सिर्फ बावली घास |

बेटी है कि माँ है घास
माँ धरती की नंगी देह को हरे मखमल से
ढांक रही है बेटी घास हरी हो गयी है धरती की सूखी देह बेटी के शीतल,सुखद,कोमल स्पर्श से जानती है घास कि माँ पर आधिपत्य है जिनका नहीं भाता उन्हें माँ-बेटी का इतना प्यार
वे कभी भी सोहवाकर,चरवाकर
या मशीन चलवाकर खींच लेंगे उनके बीच का सारा मखमल वह सूख जायेगी माँ से बिछड़कर
फिर भी मचल-मचलकर चिपक रही है माँ की छाती से घास माँ से ही सिखा है उसने माँ बनना उसकी स्नेहिल गोद में भी खेलते हैं बच्चे बिना चोट खाए युवा प्रेम करते हैं निश्चिंत बूढ़े दुःख-दर्द बाँटते हैं |
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