Thursday 9 March 2017

कवि भवानी प्रसाद मिश्र के संस्मरण

         कवि भवानी प्रसाद मिश्र के संस्मरण 

कहते हैं लाख मतभेद हो, मनभेद न हो । मतभेद होने पर आख़िर संबंधों की तरलता को कैसे बरकरार रखी जाये यह बड़े रचनाकारों से अधिक और किससे समझा जाय ! कैसे मन-मलीनता पर भी संबंधों की रोचकता और आकर्षण को बरकरार रखा जाये ! एक रोचक वाक्या पढ़ते हैं आज श्रीकांत वर्मा की किताब से - 
"भवानी प्रसाद मिश्र के और मेरे विचारों में एक टकराहट थी, जिसे वह भी  समझते थे । उन्होंने मुझ पर एकाध छींटाकशी कविता भी लिख डाली थी । इससे कोई  फ़र्क़ नहीं पड़ता । भवानीप्रसाद मिश्र के प्रति मेरे मन में आदर बना रहा । संबंध ज़रूर टूट गये । मैंने उसे मिलना छोड़ दिया - इसी दिल्ली में । लेकिन एक बार फिर संबंध जुड़े, वह भी इमरजेंसी के दौरान । 
दूरदर्शन ने  मुझसे विनोबा भावे के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक कार्यक्रम करने को कहा था । दूरदर्शन की टीम लेकर मैं उनके निवास पर गया । मैने उनसे कहा - " मैं आपका इंटरव्यू लेने आया हूँ । उन्होंने इसका कोई  उत्तर नहीं दिया । मौन रहकर एक कागज़ पर लिखा - मैने आजकल मौन साध रखा है । मैंने भी एक क़ागज़ का एक पुरजा उठाया और लिखा - ''ढोंग की भी हद होती है ।'' 
उन्होंने उत्तर में लिखा - ''यह ढोंग नहीं, तुम्हारी इमंजरेंजी और सेंशरशिप का विरोध है ।'' मैंने तर्क किया - ''मौन रहकर विरोध नहीं किया जा सकता ।'' उन्होंने फिर एक क़ागज़ पर लिखा - ''मगर तुम लोग मौन ही तो चाहते हो । आख़िरकार सेंशरशिप का क्या अर्थ हुआ ? तो लो, मैंने मौन साध लिया ।'' 
लिखा-पढ़ी के ज़रिए इस बातचीत में मुझे रस आने लगा । मैंने लिखा - ''निरर्थक मौन सार्थक प्रतिरोध की भूमिका अदा नहीं कर सकता ।'' 
उन्होंने लिखा - ''मेरा मौन निरर्थक नहीं है । मैं आजकल रोज़ 3 कविताएँ लिखता हूँ, सुबह, दोपहर, शाम और यह क्रम जारी रहेगा ।'' मगर मुझे उनका इंटरव्यू चाहिए था । मेरे बहुत अनुनय-विनय पर उन्होंने अपना मौन तोड़ा और कहा - ''मैं तुम्हारी सरकार का विरोधी हूँ, तुम्हारी इमरजेंसी का विरोधी हूँ और तुम्हारे सेंसरशिप का विरोधी हूँ । मैं इस इंटरव्यू के  लिए कतई तैयार नहीं होता । मगर मुझे बिलासपुर याद आ गया ।'' और उन्होंने दूरदर्शन को इंटरव्यू दिया । बाद में वे कविताएँ  'त्रिकाल-संध्या' के नाम से प्रकाशित हुई ।
जय प्रकाश मानस के सौजन्य से । 

इस पर अमरेन्द्र मिश्र ने टिप्पणी की --
  यह प्रसंग याद है। वो कविताएँ उनके दीवान से सटी  ऊपर की आलमारी की छत पर रखी रहती थीं। कुछ एक संकलन में आयीं तो जब्त हो गयीं तब अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते भवानी भाई ने कहा था, '' देवी जी (इंदिरा गांधी) इतने में ही घबरा गयीं भाई!  अभी तो ढेर सारी ऊपर रखी हैं। मेरे साथ कोई सज्जन बैठे थे (नाम याद नहीं) उन्होंने कहा - '' उन सब को भी छपवाना चाहिए। '' भवानी भाई को उनका यह सुझाव बड़ा खराब लगा। पलट कर बोले - '' कोई जरूरी नहीं कि आपकी सभी रचनायें आपके जीवित रहते ही छप जायें। '' उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें जो इक्कीस हजार रुपये का 'शिखर सम्मान' सम्मान दिया था, उसे केंद्र के इशारे पर वापस ले लिया गया। भवानी भाई के शुभचिंतकों ने कहा - '' आप प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं करते? '' 
''क्यों भाई, ऐसा क्या हो गया जो प्रेस कान्फ्रेन्स करूँ ? " 
''क्योंकि न सिर्फ घोषित सम्मान वापस लिया गया है, बल्कि केंद्र सरकार ने आपको राष्ट्रद्रोह कवि बता दिया है क्योंकि आपने आपातकाल के विरुद्ध कविताएँ लिखी हैं। '' 
''ठीक है। जो मर्जी करे। उन्होंने सम्मान वापस ले लिया तो ले लेने दो। मैं तो स्वीकार करने को तैयार बैठा हूँ। वे कमजोर हैं, दे नहीं सकते तो न दें। और जहां तक मेरे कवि होने की बात है या राष्ट्र विरोधी होने की बात है, तो मेरी कविताएं तो उनके लिए नहीं लिखी गयी हैं। समाज के लिए लिखी गयी है। समाज को पढ़ने और सुनने दो। '' कहकर वे हो हो करके हंस पड़े। 

आज कितने हैं उन या उनलोगों की तरह... 
सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 

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