Wednesday 19 December 2018

नवोदित कवि सलिल सरोज की कविताएँ



1. 
शब्द 
अगर इतने ही
समझदार होते
तो खुद ही
गीत,कविता,
कहानी,नज़्म,
संस्मरण या यात्रा-वृतांत
बन जाते

शब्द
बच्चों की तरह
नासमझ और मासूम
होते हैं
जिन्हें भावों में
पिरोना पड़ता है
आहसासों में
संजोना पड़ता है
एक अक्षर
के हर-फेर से
पूरी रचना को आँख 
भिगोना पड़ता है

जैसी कल्पना मिलती है
शब्द,बच्चे की भाँति
वैसा रूप ले लेता है
जैसी भावना खिलती है
वैसा धूप ले लेता है

शब्द और बच्चे
एक से ही हैं
श्रेष्ठ कृति के लिए
दोनों को
पालना पड़ता है
समय निकाल के
संभालना पड़ता है
तब जाके
एक अदद इंसान
की तरह
एक मुकम्मल
रचना तैयार होती है।

सलिल सरोज


2.
जाना
कभी उन गलियों में
जहां तुम्हें मनाही है
पर तुम जाना
और सच देखना
जो मनाही की आड़ में 
छिप जाता है

उसे
रंडीखाना,वेश्यालय,
कोठा और पता नहीं
क्या-क्या कहते है
तुम नाम में मत फँसना
वरना सच को हरा के
झूठ यहीं जीत जाएगा
यहाँ जिस्म बिकता है
पूरा या हिस्सा
दोनों
ग्राहक और पैसा 
बहुत कुछ
तय करता है
जैसे कि
सिर्फ छाती चाहिए
या होंठ
या जांघ
या नितंब
या पूरा 
जिस्म का लोथरा
एक घंटा चाहिए
या आधा
या पूरा दिन
अकेला चाहिए
या किसी 
और के साथ
अकेली चाहिए
या कई
एक साथ
फर्श पे चाहिए
या पलँग पर
कोठरी में चाहिए
या एयर-कंडीसन में
बत्ती जला के चाहिए
या बुझा के
अधनंगा बदन चाहिए
या नंगा चाहिए

तमाम
समीकरणों में
जिस्म के पीछे
कोई माँ
जिसकी बेटी
खिड़की से
रोज़ माँ को
बिकती देखती है
कोई बहन
जिसकी राखी
किसी भी को नहीं
पहचानती है
कोई बीवी
जो शौहर से
काँपती हो
कोई बेटी
जो बाप के डर से
भागती हो
और 
एक औरत
जो समाज
के दायरे में
रिवाज़ के जंजीर 
में लिपटी
रोज कलपती है
कलस्ती है
रोटी है
चिंघारती है
और वक़्त-बेवक़्त
बेआबरू होक
मरती है
तुम उससे मिलने
और जानना सच
इस सभ्य समाज का
जो औरतों को
पूजता है
कहीं सावित्री तो
कहीं सीता खोजता है
और देवी की कल्पना में
मूर्तियाँ तराशता है
और शाम ढलते ही
उसी बदनाम गली
में जाता है
जहाँ
तुम्हें जाने की
मनाही है।

सलिल सरोज 

3.
घर के काम-काज से
निपट कर
औरतें
दोपहर में
क्या बातें करती होगी
शायद
अपने पतियों की तंगी हालत
बच्चों की पढ़ाई का खर्चा
ससुर का इलाज
सास के ताने
ननद के बहाने
देवर के सताने
के बारे में ही
बातें करती होंगी
पर 
जो 
नहीं कर पाती होगी
वो है
अपने शरीर का भट्टी होते जाना
अपने सपनों का राख बनते जाना
अपने अरमानों को खाक करते जाना
पर वो ऐसा क्यों नहीं सोच पाती
उन्हें "शिक्षा" दी गयी है
तुम नारी हो
तुम बलिदान हो
तुम्हें भूखी रहना है
हर दुख सहना है
और घुट के
एक दिन मर जाना है
और इस "शिक्षक" समाज की
हेडमास्टर भी नारी है
ये बिडम्बना बहुत भारी है
इसी ऊहापोह में
नन्ही बच्चियों को
एक बार फिर
भट्टी बनाने की तैयारी है।

सलिल सरोज

4.
है साहस तो
बढ़ना कभी
औरत के देह
से भी आगे,
जिसकी अस्थि-मज्जा तक
तुम भींच चुके

देह की पिपासा 
के बाहर स्त्रियों
का मन है
जहाँ तुम्हारे कदम
लड़खड़ा जाते हैं
क्योंकि
तुम्हें वहाँ 
तुम्हारे खोखले आदर्शों
को चुनौती मिलती है

पर एक बार
जरूर घुसना 
उस मन में
तुम्हें वहाँ एक
अँधा,गहरा,कुआँ मिलेगा
जिसमें अनगिनत सपने
अरमान,अहसास
कीड़े-मकोड़े की तरह
कुलबुला रहे होंगे
उनको कभी धूप नहीं मिली
मर्दों के अभिमान के
नीचे कभी 
वो पनप नहीं पाए
उग नहीं पाए
खिल नहीं पाए

तुम्हें कुछ देर
शर्म तो आएगी
ज्यादा संवेदनशील हो
तो ग्लानि भी आएगी
और गर इंसान हो
तो शायद रोना भी आएगा
पर कुछ ही देर बाद
जब तुम्हारा
पौरुष हावी होगा
तुम मुँह फेर कर
चल दोगे
और 
स्त्रियों के मन की
जिस यात्रा पे तुम निकले थे
हमेशा की तरह
अधूरी ही रह जाएगी।

सलिल सरोज

5.
कभी देखना
मेरी नज़र से
उन अँधेरे-बंद 
कमरों को
जहाँ तुम
मुझे कैद करते हो
मेरे स्तनों को
रौंदते हो
मेरी योनि को
चीरते हो
और 
अपनी मर्दानगी का
दम्भ भरते हो

कभी करना
महसूस
उन घावों को
जो मैंने 
अपने अधिकार माँगने
और तुम्हारे न दिए जाने
के संघर्ष में बने
वो घाव जब निर्वस्त्र
होकर तुम्हारे जाँघों
के नीचे दबते हैं
तो बहुत चीखते हैं
चिंघाड़ते है
और फिर नासूड़
बन जाते हैं

कभी सूँघना
मेरी जिस्म को
जो फूल होता है
तुम्हारे मर्दन से पहले
जब तुम्हारी 
क्रूर भुजाओं में
मसला जाता है
तो सड़े हुए 
पानी की तरह ही
बदबू देता है

कभी घुसना
मेरे वस्त्रों में
ब्लाउज़ और पेटीकोट में
तुम्हारी नसें फट जाएँगी
वहाँ सिर्फ कुछ अंग नहीं
शर्म,सम्मान और पीड़ा
सब छिपा रहता है
जिसे तुम रोज़ 
कभी रात,कभी दिन
तो कभी
भारी दोपहर
उघेड़ दिया करते हो

कभी बनो 
तुम भी किसी दिन
स्त्री,नारी,महिला
और सहो
पुरुष,समाज,दुनिया के
खोखली आदर्श
थोड़ा घुटो
थोड़ा तड़पो
थोड़ा सिसको
और थोड़ा 
रोज़ ही मारो

और फिर 
कोशिश करना
दाँत निपोर कर
कहने कि
वो
"बस औरत ही तो है"।

सलिल सरोज



उपरोक्त सभी रचनाएँ मेरी स्वरचित और मौलिक हैं।

नाम:सलिल सरोज
पता: बी 302, तीसरी मंजिल
सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट्स
मुखर्जी नगर
नई दिल्ली-110009
उम्र:31 वर्ष
शिक्षा: सैनिक स्कूल तिलैया,कोडरमा,झारखण्ड से 10वी और 12वी उतीर्ण। 12वी में स्कूल का बायोलॉजी का सर्वाधिक अंक 95/100
जी डी कॉलेज,बेगूसराय,बिहार से इग्नू से अंग्रेजी में स्नातक एवं केंद्र  टॉपर, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली से रूसी भाषा में स्नातक और तुर्की भाषा में एक साल का कोर्स और तुर्की जाने का छात्रवृति अर्जित। जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी,नई दिल्ली इग्नोउ से समाजशास्त्र में परास्नातक एवं नेट की परीक्षा पास।
व्यवसाय:कार्यालय महानिदेशक लेखापरीक्षा,वैज्ञानिक विभाग,नई दिल्ली में सीनियर ऑडिटर के पद पर 2014 से कार्यरत।
सामाजिक एवं साहित्यिक सहयोग: बेगूसराय में आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को अंग्रेज़ी की  मुफ्त कोचिंग। मोहल्ले के बच्चों के कहानी,कविता और पेंटिंग को बढ़ावा देने हेतु स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का प्रकाशन और सम्पादन किया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा में स्नातक की परीक्षा के लिए "Splendid World Informatica"  किताब का सह लेखन एवं बच्चों को कोचिंग। बेगूसराय ,बिहार एवं अन्य राज्यों के हिंदी माध्यम के बच्चों के लिए "Remember Complete Dictionary" किताब का अनुवाद। बेगूसराय,बिहार में स्थित अनाथालय में बच्चों को छोटा अनुदान। 

No comments:

Post a Comment

Add

चण्डीगढ़ की हिन्दी कवयित्री श्रीमती अलका कांसरा की कुछ कविताएँ

Hindi poems /    Alka kansra / Chandi Garh Punjab    चण्डीगढ़   गढ़     में   रसायन   शास्त्र   की   प्रोफ़ेसर   श्रीमती   अलका   कांसरा   ह...