Saturday 19 January 2019

हिन्दी और संस्कृत के विद्वान कवि डा देवी सहाय पाण्डेय की कुछ कविताए

Dr Devi Sahai Pandey
maneesh deep
to me
1 day ago
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🌼सिद्धान्तों की सड़ी लाश🌼

लाश सिद्धांतों की सड़कर 
दे रही बदबू बडी 
दल प्रबल   हैं मक्खियों के 
भिनभिनाने लग गये। 
गिद्धगण खाने लगे हैं जीवितों के मांस को 
कौवे बुला लाये विदेशी गिद्ध आने लग गये। 
श्वान और श्रृगाल सारे इंकलाबी बन गये 
संगठन अपने नये मिलकर बनाने लग गये। 
लोमड़ियों की पूछिये मत 
हो गये हर्षित बड़े 
लाभ अवसरवादिता का 
वे उठाने लग गये। 
शेर अब रहने न पाये 
नस्ल उनकी नष्ट हो 
मांग अपनी पेश कर नारे लगाने लग गये। 
खून पी लो मांस नोचो 
हड्डियों तक चूस लो 
हर घरों में लोग यह ट्रेनिंग दिलाने लग गये। 
देश का परिवेश पूरा 
भर गया दुर्गन्ध से 
लोग आदी बन चुके ताली बजाने लग गये। 

                  - डॉ देवीसहाय पाण्डेय।


🌺किसका - किसका श्रृंगार करूं🌺

मुट्ठी भर फूलों के बल पर किसका-किसका श्रृंगार करूं।। 
                श्वासों का सीमित कोश लिये 
                 कुण्ठाओं का आक्रोश लिये। 
                  पथ के ऊबड-खाबड़पन में 
                  उच्छ्वासों का उद्घोष लिये। 
मैं भटकूं कहां-कहां जीवन में, किससे-किससे प्यार करूं।। 
                    है भीड़ लगी आशाओं की 
                    क्षत-विक्षत अभिलाषाओं की। 
                     आकांक्षा के कोमल पग में 
                      असफलताओं के घावों की।। 
मैं एक अकिञ्चन घायल हूँ, किसका-किसका उपचार करूं।। 
                      केवल नयनों की भाषा है 
                      मुसकाती हुई निराशा है। 
                       जिसमें वाणी-बल नहीं, उसी 
                       पागल मन की अभिलाषा है।। 
है भीड़ लग गई आंगन में, किसका-किसका सत्कार करूं।। 
                         दो पल राजा की आन-बान 
                           दो पल शहनाई का विधान। 
                            दो पल को ही आता वसन्त 
                              दो पल कोकिल का मधुर गान।
दो पल का मेरा जीवन है, किससे-किससे तकरार करूं।। 
                       पल दो पल में जीवन थाती 
                        है काल-करों से छिन जाती। 
                         घन के तन से लिपटी चपला 
                         दो पल गलबाहें दे पाती। 
दो पल में सिमटी सांसे हैं, कैसा-कैसा व्यवहार करूं।।

                    - डॉ देवीसहाय पाण्डेय।

तन पर भसम लसत बरसत रस 
                       गर पर फन सरपन कर फहरत। 
चमकत वदन लगत दरपन अस 
                        अनगन भगत मगन मन हरसत। 
बम-बम बमकत बगल बरद वर 
                         हर-हर करत अमल जल लहरत। 
रहत नगन, बस वसन गगन कर 
                          पर बरसत धन हर जलधरवत।

सीधी- साधी जिन्दगी का नाम शिव शंकर है, 
बसन सो काज कहां भसम रमाइ        लेत। 
चाही त्रिपुरारी को न महल - अटारी कछु, 
कवि दीप आसन मसान में     जमाइ लेत। 
चाही रपटीली गज-बाजि की सवारी नाहिं, 
बूढ़े बैल द्वारा सारा काम निपटाइ      लेत। 
षटरस व्यंजन के रंजन की चाह        नाहि, 
अमिय न चाहि   खाइ माहुर पचाइ    लेत।

।। उषा।। 
                            (१)

निशा-उषा दोनों  बहनें हैं, निश्चित पथ पर चलने वाली। 
दोनों का पथ अन्तहीन है, दोनों नहीं भटकने वाली।। 
परमात्मा के अनुशासन में दोनों आगे-पीछे चलतीं। 
रूप-रंग में भले न मिलतीं, पर विरोध में कभी न ढलतीं।। 
कभी न टिकतीं एक जगह पर, नियत कार्य को करने वाली। 
निशा-उषा दोनों  बहनें हैं, निश्चित पथ पर चलने वाली।। 

                                 (२)

उषा दिव्य जागरण साथ ले, सोते जग में आती है। 
टेढ़े पड़े सो रहे जो, उनको झकझोर जगाती है।। 
जन हों निज-निज कर्म-निरत विधिवत् सन्देश सुनाती है। 
कुछ को योग, भोग में कुछ को, कुछ से यज्ञ कराती है।। 
अल्प दृष्टि में अधिक दृष्टि की क्षमताएँ उपजाती हैं। 
निज विशाल बाहों में भर कर प्रचुर प्रकाश लुटाती हैं।।  
                             (३)

भाँति-भाँति के कर्म-जाल को जग में उषा बिछाती है। 
क्षात्र-सुलभ अभ्यास युद्ध का योद्धा से करवाती है।। अन्नादिक की उपज बढ़ाने श्रम का पाठ पढ़ाती है। 
आलोक लोक में फैलाती आती है जगत् जगाती है।। 
                           (४)
स्वर्ग-कन्यका, उषा सुहासिनि, सुन्दर दीप्तवदन दमकाती। 
क्षितिज तोड़कर चली आ रही, अन्धकार को दूर भगाती।। 
सितवसना, यौवनसम्पन्ना, मन्द-मन्द मृदुहास लुटाती। 
भूतल की सम्पत्ति-स्वामिनी, अंगों में उमंग उमगाती।। 
सुभगे उषे, यहाँ भूमण्डल को कल किरण-माल पहनाओ। 
कर आलोक लोक में वितरित, अन्धकार को मार भगाओ।।





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